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शनिवार, 29 अगस्त 2020

1870... कबीरा खड़ा बज़ार में

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

उड़ान वालों तेरे उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
बढ़ती सम्पन्नता संग असंवेदनशीलता लाती है

सात दिन सात किताबें
वटवृक्ष सही मायनों में भारतीय संस्कृति का प्रतीक हो सकता है।
एक विशाल वटवृक्ष का निर्माण सदियों में होता है और उसकी शाखाएं
एक नए वृक्ष का रूप धारण कर सदियों तक
अपनी छाया में रहने वालों को शीतलता प्रदान करती हैं।
कबीरा खड़ा बज़ार में
प्यार तुम मत किया करना
किसी से जो तूने कहा  है,
निभा सकते हो तो लगाव न करना ।
किसी से जो तूने कहा  है,
अपनी ऑंखों से किसी की,
किसी से जो तूने कहा  है,
 जिन्दगी बीमार को न करना ।।
सबसे बुरे दिनों से भी...
तब तुम भी
अनिवार्य रूप से
वेदों की ओर मुड़ जाना.
बेहतर होगा
कि शहर के राजपथ छोड़कर
किसी अरण्य की पगडंडी पकड़ लेना
मंतव्य
'एक युवा जंगल मुझे,
अपनी हरी पत्तियों से बुलाता है।
मेरी शिराओं में हरा रक्त बहने लगा है
आंखों में हरी परछाइयां फिसलती हैं
कंधों पर एक हरा आकाश ठहरा है
होठ मेरे एक हरे गान में कांपते हैं:
पहेली
कहत कत परदेसी की बात
मंदिर अरध अवधि बदि हमसो
हरि अहार चलि जात।
 ब्रज के ही नहीं विश्व के महान कवियों में शुमार किए जाते
कवि की एक रचना की यह पहली दो पंकि्तयां हैं।

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पुन: भेंट होगी...
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हम-क़दम का अगला विषय है-
'उन्मुक्त'

              इस विषय पर सृजित आप अपनी रचना आज शनिवार (29 अगस्त 2020) तक कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के माध्यम से हमें भेजिएगा। 

चयनित रचनाओं को आगामी सोमवारीय प्रस्तुति (31 अगस्त 2020) में प्रकाशित किया जाएगा।


3 टिप्‍पणियां:

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