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गुरुवार, 10 अगस्त 2017

755.....हम अपनी-अपनी दीवारों में क़ैद हो गये

सादर अभिवादन !
15 अगस्त को हमें  ब्रिटिश हुक़ूमत से आज़ाद  हुए 70 साल पूरे होंगे  और 71 वां स्वतंत्रता-दिवस धूमधाम से मनाया जायेगा  जिसकी तैयारियां युद्धस्तर पर ज़ारी हैं।  
ज़रा सोचिये जून 1947 में पाकिस्तान बनने की प्रक्रिया आरम्भ हो गयी थी तब 15 अगस्त 1947 की आधी रात जब पाकिस्तान की एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में घोषणा की गयी जिसमें पश्चिमी पाकिस्तान जो आज अस्तित्व में है व पूर्वी पाकिस्तान जो भारत के सहयोग से 17 दिसंबर 1971  को बांग्लादेश बना...... इस पीड़ा को उस वक़्त देशवासियों ने बंटबारे के रूप में कैसे सहा होगा ...  
       
          

चलिए आपको अब आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर  ले चलते हैं -

बँटबारा चाहे आँगन का हो या देश का हमें किस प्रकार सालता है , 
अपर्णा बाजपेयी जी की यह रचना व्यापक संदेश और 
अथाह मार्मिकता से लबरेज़ है....

   


हम अपनी-अपनी दीवारों में क़ैद हो गये 
और हमारी दोस्ती हवाओं में  घुल  गयी 

आजकल आधुनिकतम सुबिधाओं के साथ बच्चों की परवरिश एक कठिन चुनौती बनती जा रही है।  पढ़िए डॉ.मोनिका शर्मा जी का सारगर्भित लेख 



साइबर दुनिया के किसी गेम के कारण जान दे देने की बात हो या बच्चों की अपराध की दुनिया में दस्तक | नेगेटिव बिहेवियर का मामला हो या लाख समझाने पर भी कुछ ना समझने की ज़िद |  परवरिश के हालात मानो बेकाबू होते दिख रहे हैं | जितना मैं समझ पाई हूँ हम समय के साथ बच्चों के...

इस समय देश में पत्रकारिता के चरित्र पर ज़ोरदार  बहस छिड़ी हुई है।  पत्रकारिता का उद्देश्य समझाता लोकेन्द्र सिंह जी का लेख- 


मौजूदा  दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट 
दिखाई दे रही हैं।देश के इतिहास में यह पहली बार हैजब आम समाज यह बात कर रहा हैकि फलां चैनल/अखबार कांग्रेस का हैवामपंथियों का है और फलां चैनल/अखबार भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का है।समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना 
पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए ठीक नहीं है। कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता हैजब उसकी खबरों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है।

भाषायी ज्ञान में अनुवाद का महत्व हमारी सोच को विस्तार देता है। पढ़िए एक विचारणीय  प्रस्तुति -     
       
           
स्पिनोज़ा ने यह भी कहा कि इश्वर प्रकृति का कोई निर्देशक नहीं जो 
प्रकृति की यात्रा को किसी नाटक की तरह एक निर्धारित अंत तक पहुंचाने के लिए होसीधे तौर पर उस विधि के विधान को खारिज किया 
जिससे मानव अपने दिशा निर्धारण या 
दिशा निर्धारण में मदद की उम्मीद रखता हो.

आशाओं के आगमन का ढाढ़स बंधाती हृदयस्पर्शी रचना 
आदरणीय डॉ. महेंद्र भटनागर जी की -  


अनेकों बरस से धुएँ में नहाती रही है।

कि गंगा  यमुना-सा

आँसू का दरिया बहाती रही है।
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है।
मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन।

आज की प्रस्तुति पर आपके सारगर्भित 
सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। 
अब आज्ञा दें। 
फिर मिलेंगे।

11 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात भाई रवीन्द्र जी
    बेहतरीन रचनाएँ चुनी आपने
    साधुवाद
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. संवेदनशील प्रसातुत् हेतु बधाई रवीन्द्र जी। शुभप्रभात।

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय रवीन्द्र जी
    आज का अंक बहुत ही तार्किक व विचार
    करने को विवश करती है
    एक तरफ बच्चों की शिक्षा ,
    तो दूसरी तरफ दर्शन
    कही मार्मिक आवाज़ में रचना
    तो कहीं आशा की किरण
    उम्दा प्रस्तुतिकरण
    ,तार्किक लिंक
    मन से बनाई गई प्रस्तुति
    बधाई !
    आपसभी के विचार अपेक्षित हैं ,
    आभार
    "एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी रचना को इतना मान देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति करण एवं उम्दा लिंक संकलन.....

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन संकलन के साथ उम्दा प्रस्तुति..

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन लिंकों से परिचित कराने हेतु धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुन्दर विचारणीय प्रस्तुति.

    जवाब देंहटाएं
  9. गहन विचारणीय और सारगर्भित है आज की प्रस्तुति.

    जवाब देंहटाएं

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