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रविवार, 17 जनवरी 2016

183..आकस्मिक प्रस्तुति...

सादर अभिवादन
आज अचानक यह प्रस्तुति मेरे माध्यम से
कल भाई कुलदीप जी ने रचनाओं का चयन तो किया है
पर अपरिहार्य कारणों से आपके समक्ष नही आ पाए
आएंगे ज़रूर और... आज ही आएगी..उनकी प्रस्तुति
क्रम को बरकरार रखने हेतु
कुछ मेरी पसंद की रचनाएँ प्रस्तुत है...

कश्मीर के तीन सेब ने ,,
मुझे माँ ,,
पत्नी ,,
बिटिया के प्यार के 
बीच का फ़र्क़ समझा दिया ,,,,,,,,,,,,
एक में हुक्म था ,,
एक में लापरवाही ,,
एक में प्यार ही प्यार ,,
बस



चाँद कोई मेहमान नहीं है,
लोगों पर अहसान नहीं है !

अपने लोगों को वर देना
वैसे भी, अनुदान नहीं है !


क्या किया जाये 
जब देर से 
समझ में आये 
खिड़कियाँ 
सामने वाले की 
जिनमें घुस घुस 
कर देखने समझने 
का भ्रम पालता 


समरथ को नहीं दोष गोसाईं ,
देश की दौलत मिलकर खाई !
सबका हिस्सा आधा -आधा 
सबके सब मौसेरे भाई !


समय! कब रुका है किसी के लिए?
वो तो यूँ गुज़र जाता है... 
पलक झपकते ही!-
मानो सीढ़ियाँ उतर जाता हो कोई,
तेज़-तेज़,* *छलाँग लगाते हुए -
धप! धप! धप! - और बस!-
यूँ गुज़रता है समय!

आज यहीं तक

प्रतीक्षा कीजिए भाई कुलदीप जी की प्रस्तुति का
सादर...
यशोदा






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