सादर अभिवादन
देखते ही देखते
वर्ष दो हजार सोलह के
सत्रह दिन बीत गए
ये दिन भी न
बड़े करामाती हैं
अथकित हैं..
बीतते हैं..जरूर
वापस नहीं आते
यादों के मानिन्द..
येल्लो....
मैं तो लिखने ही बैठ गई...
चलिए चलें आज के सूत्रों की ओर...
तुम्हें याद है
हर शाम क्षितिज पर
जब एक गोल नारंगी फूल टँगे देखती
रोज़ कहती -
ला दो न
और एक दिन तुम वाटर कलर से बड़े से कागज पे
मुस्कुराता सूरज बना हाथों में थमा दिए,
बहती नदिया गजल गाती है
बागों में कोयल ग़ज़ल गाती है
साँझ ढले जब प्रीतम घर आए
गौरी की अँखियाँ ग़ज़ल गाती है।
तपते सहरा में
चली हूँ अकेली मैं,
जब छाँव भरी बदली
ढक ले मेरे राह को
शीतल कर दे मेरी डगर,
तब तुम मत आना।
ज़िन्दगी क्या है तू ??
दर्द और संघर्ष से रिश्ता बचपन से रहा था
उसे पता तो था कि ज़िन्दगी के कई आयाम
खिली धूप की सुनहरी चमक से हैं
कविता मंच में.......संजय कुमार गिरि
सूरत बदल गई कभी सीरत बदल गई।
इंसान की तो सारी हक़ीक़त बदल गई।
पैसे अभी तो आए नहीं पास आपके,
ये क्या अभी से आप की नीयत बदल गई।
और ये रही आज की प्रथम कड़ी
अनिर्मित पथ में..रंजना जायसवाल
योद्धा थी मेरी माँ
उसने सिर्फ अपनी लड़ाई नहीं लड़ी
लड़ी हम भाई बहनों के साथ ही
बहुतों की भी लड़ाई
हमेशा ढाल की तरह
आज्ञा दें..
जाती है यशोदा
लौट कर आने ले लिए
चित्र सभी..गूगल बाबा के पिटारे से
shukriyaa bahn
जवाब देंहटाएंशुभप्रभात दीदी...
जवाब देंहटाएंसुंदर हलचल...
एक नयं हलचलकार का आगमन...
दो सौएं अंक तक संख्या 7 होनी चाहिये...
आभार दीदी आप का...
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंको के साथ शानदार चर्चा ।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति । अब लिखने बैठ ही गई थी तो लिखते भी चली जाती अच्छा नहीं होता क्या?
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!