सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
बिहार में चूड़ा दही का पर्व था कल
पहले जैसे ना खाने वाले रहे ना खिलाने वाले
हमेशा के लिए याद में है
मेरा गाँव
पतंगे कट कर बच्चों के लिए गिर रही होंगी।
मिट्टी तेल वाली ढ़िबरी से फैलती हुई
जबरदस्ती की रौशनी अंधेरों से पस्त हुई मालूम होती होगी।
कोई किताब है जो पढ़ते-पढ़ते छूट गई होगी और
उसके अधखुले पन्ने पर एक चींटी रेंग रही होगी।
जब काटा गया हाथ
मैं हल्के बेहोशी मैं थी और उन्होनें
मेरे हाँथ की नश काट डालने का प्रयास कर डाला
और कहा कि मर गयी तो कह देंगें होगा
किसी के साथ चक्कर-मक्कर |
बाद में बदनामी भी ब्याज में,बहुत बढ़िया
दर्द के साथ में
और गहरे ... देखता हूँ
ख़ीज की चिपकी हुई काई है
कुंठा की सूखी हुई पत्तियाँ हैं
फूँस का ढेर सुलग रहा है निरंतर
तड़प है जलन है तपन है इस दर्द के साथ में
दंगा बन रहा देश का नासूर
धर्म जाति के नाम पर हम, क्यों करते हैं आपस में लड़ाई,
जाति धर्म समुदाय अलग है, खून तो सबका एक है भाई।
सोचो एक बार सब मिलकर, कितनी मुश्किल से मिली आज़ादी,
आपस में लड़कर के हम, कर रहे हैं देश की बर्बादी।
तुम साथ हो
वहाँ ऊपर कहीं चाँद भी खफ़ा था
मेहफ़ूज़ बस कुछ अभी तक ही था
जुस्तजू शुरू इस बात पर हुई
कि कम्बख़्त आहें कब से चोर हो गयीं
बेदाग़, कमज़र्फ दागदार कब से हो गयीं
चिराग़ कहाँ रौशनी कहाँ
आधुनिकता से परहेज नहीं ....
लेकिन परिवार बिखरने का कारण बनना
फैशन हो गया है
जरा बच के
नेट बैंकिंग
सावधानी हटी दुर्घटना घटी जैसी बात
हम फिर मिलेंगे ....... तब तक के लिए
आखरी सलाम
विभा रानी श्रीवास्तव
शुभ प्रभात दीदी
जवाब देंहटाएंयादगार प्रस्तुति
आभार..
सादर
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!
सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएं#
जवाब देंहटाएं"पांच लिंकों का आनन्द में"
"दर्द के साथ में" रचना को स्थान देने के लिये ह्रदय से आभारी हूँ
आपका यह स्नेह वतसल आशीर्वाद भाव मेरे लिए उत्साह का संचार करता रहेगा
सादर नमन