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शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

1155.....भावी पीढ़ी वही सीख रही जो आप सिखा रहे

"किसी देश की सांस्कृतिक सभ्यता समृद्ध होगी 
जब उस देश की राजभाषा का उचित सम्मान होगा।"

मात्र एक सुंदर भावपूर्ण पंक्ति से ज्यादा उपर्युक्त कथन का अभिप्राय हमने कभी समझा ही नहीं या यों कहें हिंदी की औपचारिकता पूरी 
करने में हम हिंदी को आत्मसात करना भूल गये।

स्वतंत्रता प्राप्ति के ७२ साल पश्चात भी अपनी देश की सभ्यता 
और संस्कृति में घुलने के प्रयास में राजभाषा 
हिंदी की आत्मा आज भी बिसूर रही है।

क्या बिडंबना है हज़ार साल पुरानी हिंदी को गुलाम बनाने वाली 
अंग्रेजी आज शान से परचम लहराये अभिजात्य वर्ग के बैठकों 
से लेकर गली-मुहल्ले तक उन्मुक्तता से ठहाका लगा रही है 
और हिंदी अपने ही घर में मुँह छुपाये शरम से गड़ी जा रही है।
हिंदी साहित्य हिंदी को समृद्ध बनाने की आधारशिला है। 

हिंदी साहित्य के झंड़ाबदारों से विनम्र निवेदन है-
रचनात्मकता का पैमाना तय करना उचित नहीं है।
क्लिष्ट या सरल लिखना अपनी क्षमता और रुचि पर निर्भर है।  
क्या लिखा जाय ,किस पर लिखा जाय,कितना लिखा जाय 
यह बहस का कोई मुद्दा नहीं।
हाँ,जो भी लिखा जाय वह मौलिक हो और उसकी 
वर्तनी शुद्ध हो यह जरुरी है। 
"भावी पीढ़ी आपसे वही सीख रही है जो आप सिखा रहे हैं इस बात 
का ध्यान रखना हम सभी रचनाकारों की मूल ज़िम्मेदारी है।"
सादर नमस्कार
चलिये अब आज की रचनाएँ पढ़ते है-

आदरणीय विश्वमोहन जी की 
प्रबुद्ध विचारोत्तेजक लेखनी से-

हमारी वर्तमान हिंदी ने भी अपने इस स्वरुप में गढ़े जाने के 
पहले किसिम किसिम की मंडियों की तेज़ी और मंदी की 
खुरदराहट और फिसलन से गुजरते हुए अपनी जमीन तैयार 
की है. यह प्रक्रिया सनातन है और सनातन जारी रहेगी.  
हाँ, पहले ही मैं आपको साफ़ कर दूँ कि भाषा के दो रूप 
समानांतर चलते हैं. एक उसकी बोल चाल और रोज रोज 
के चलन का उसका सामजिक व्यावहारिक चोला और 
दूसरा उसका साहित्यिक झोला! आगे आगे समाज,पीछे पीछे साहित्य! आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है.

★★★★★★
आदरणीया अभिलाषा जी की बेहद हृदयस्पर्शी रचना

आज बाबूजी उठे नहीं थे
अम्मा काम समेटने में व्यस्त
कि घर थोड़ा सा सही हो जाए
तो उनके नहाने का पानी गर्म करें
बार-बार घड़ी देखतीं
फिर छनकते हुए बर्तन सहसा सम्हालतीं
कहीं नींद न टूट जाए,
रोष तो बस बाबूजी को था
★★★★★

आदरणीया एस.नेहा की क़लम से-

क्षितिज के उस पार 
जहाँ  मेरी जाने के ख्वाहिश हैं

वहां न ख्वाहिशों की  बेड़ियाँ हैं 
और न ही रिश्तों का दोहरापन 
वहाँ न ही उम्मीदें हैं 
और न ही किसी प्रकार का सूनापन 
★★★★★★

आदरणीय रोहिताश जी की लिखी रचना

उस सिलवटों भरे बिस्तर से
उस सोच से जिसमें तू रहता है
तन्हाई वाले ख्यालों से
उस तबियत से
बगैर तेरे जो रफ्ता रफ्ता बिगड़ रही है

★★★★★

और चलते-चलते पढ़िए आदरणीय शशि जी की भावपूर्ण लेखनी की अभिव्यक्ति

वाराणसी में हरिश्चन्द्र इण्टर कालेज में पूरे चार वर्षों तक मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते ही सामने  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ही तो प्रतिमा का दर्शन  होता था और स्मारक पर मोटे अक्षरों में यह अंकित है.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
★★★

आज का अंक आपको कैसा लगा?
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी
हम-क़दम रे विषय के सम्बन्ध में
यहाँ देखिए

आज के लिए आज्ञा दीजिए
आदरणीय विभा दीदी 
कल मिलेगी आप सब से
हिन्दी दिवस पखवाड़े के 

साथ प्रस्तुत होंगी 

-श्वेता


18 टिप्‍पणियां:

  1. श्वेता जी आज आपने हिन्दी दिवस पर अपने और सहयोगियों के चिन्तन से ब्लॉग को हिनदी का एक पाठशाला ही बना दिया है । आवश्यकता इस बात की है कि हम युवा पीढ़ी को इससे जोड़ सकेंं । उन्हें मातृभाषा का महत्व बता सकें।
    मेरे विचारों को स्थान देने के लिये हृदय से आभार।

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात सखी
    जबरदस्त वकालत हिन्दी की
    इसी तरह की वकालत रोज हो
    तो हिन्दी जीत जाएगी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. हिन्दी दिवस की हिन्दी प्रेमियों को शुभकामनाएं। एक बेहतरीन संकलन।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर प्रस्तुति हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  5. राष्ट्र भाषा का सम्मान निज का सामान है ....
    सुंदर संकलन

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर संकलन.... हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  7. जैसे भी हो इसे तो सशक्त बनाना ही है ! लगे रहना है इसे उचित सम्मान दिलाने के लिए !

    जवाब देंहटाएं
  8. हिंदी दिवस की शुभकामनाएँ..बहुत सुंदर प्रस्तुति के साथ अच्छी संकलन।
    बधाई एवम् शुभकामनाएँँ।

    जवाब देंहटाएं
  9. हिंदी दिवस पर एक छोटी सी कविता

    पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी

    आँखों के सामने
    जीते जी मार दिया है
    कुछ 'हमपरवाजों' ने
    ना समझी में
    उसे जो जिन्दा है
    मुझ में
    और मेरे बाद
    मेरे लिखित अलिखित अल्फाजों में,
    मुमकिन है उनमें भी, जो
    इसके सम्मान को कम लिखते हैं
    गिरा लिखते हैं.

    हिंदी अजर है
    और अमर रहेगी
    कैसी सोच, कैसे दिन हैं
    ये भी बताना पड़ता है उनको
    जिन्होंने इसे काबिले-रफ़ू समझा
    उनकी पासबां है हिंदी
    जब भी लिखने बैठता हूँ अल्फ़ाज़
    मेरी जबीं को चूमती सी लगती है हिंदी
    माँ की तरह
    जो एक दुसरे में
    प्राण फूंकते रहते हैं.

    "रोहित"

    हमपरवाज़= साथ में उडान भरने वाले(लेखक), काबिले-रफ़ू = रफ़ू कराने योग्य, पासबां = द्वारपाल, जबीं = ललाट
    हिंदी के बारे में और कुछ नहीं कहना।


    रही बात आज के हलचल की तो वो बहुत लाजवाब रही।
    सारे लिंक्स बेहतरीन और सार्थक थे।
    मेरी कविता ही एक मात्र ऐसी है जो सारहीन है।
    फिर भी इस हलचल में देखने को मिली इस हौसलाअफजाई का शुक्रिया। 😊🙏

    जवाब देंहटाएं
  10. "भावी पीढ़ी आपसे वही सीख रही है जो आप सिखा रहे हैं इस बात
    का ध्यान रखना हम सभी रचनाकारों की मूल ज़िम्मेदारी है।" बहुत सुन्दर सन्देश और सार्थक भूमिका के साथ सुन्दर रचनाओं का संकलन ! बहुत बधाई और आभार!!!

    जवाब देंहटाएं

  11. हिन्दी दिवस की शुभकामनायें.
    हिन्दी दिवस पर सारगर्भित प्रस्तावना के साथ बेहतरीन रचनाओं से सजी प्रस्तुति. अग्रलेख में ज़िक्र किये गये मुद्दों पर चिंतन-मनन ज़रूरी है.
    राजभाषा और राष्ट्रभाषा का अंतर हमें अवश्य समझना चाहिये.
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं
  12. हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं।
    लाजवाब प्रस्तुतिकरणत्व उम्दा लिंंक संकलन

    जवाब देंहटाएं

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