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मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

893....धन्य है दशम  गुरु, धन्य थे ये दोनों  लाल,

जय मां हाटेशवरी....

आज के दिन ही यानी 13 पौष तदानुसार 26 दिसंबर 1705 को जब देश में मुगलों का शासन था और सरहिंद में सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह के दो मासूम बेटों सात वर्ष के जोरावर सिंघ तथा पाँच वर्ष के फतेह सिंघ को दीवार में जिंदा चुनवाया गया था....कहते हैं कि  साहिबज़ादों को कचहरी में लाकर डराया धमकाया गया। उनसे कहा गया कि यदि वे इस्लाम अपना लें तो उनका कसूर माफ किया जा सकता है और उन्हें शहजादों जैसी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो सकती हैं। किन्तु साहिबज़ादे अपने निश्चय पर अटल रहे। उनकी दृढ़ता थी कि सिक्खी की शान केशों श्वासों के सँग निभानी हैं। उनकी दृढ़ता को
देखकर उन्हें किले की दीवार की नींव में चिनवाने की तैयारी आरम्भ कर दी गई किन्तु बच्चों को शहीद करने के लिए कोई जल्लाद तैयार न हुआ।
अकस्मात दिल्ली के शाही जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग अपने एक मुकद्दमें के सम्बन्ध में सरहिन्द आये। उन्होंने अपने मुकद्दमें में माफी का वायदा लेकर साहिबज़ादों को शहीद करना मान लिया। बच्चों को उनके हवाले कर दिया गया। उन्होंने जोरावर सिंघ व फतेह सिंघ को किले की नींव में खड़ा करके उनके आसपास दीवार चिनवानी प्रारम्भ कर दी।
बनते-बनते दीवार जब फतेह सिंघ के सिर के निकट आ गई तो जोरावर सिंघ दुःखी दिखने लगे। काज़ियों ने सोचा शायद वे घबरा गए हैं और अब धर्म परिवर्तन के लिए तैयार हो जायेंगे। उनसे दुःखी होने का कारण पूछा गया तो जोरावर बोले मृत्यु भय तो मुझे बिल्कुल नहीं। मैं तो सोचकर उदास हूँ कि मैं बड़ा हूं, फतेह सिंघ छोटा हैं। दुनियाँ में मैं पहले आया था। इसलिए यहाँ से जाने का भी पहला अधिकार मेरा है। फतेह सिंघ को धर्म पर बलिदान हो जाने का सुअवसर मुझ से पहले मिल रहा है।
छोटे भाई फतेह सिंघ ने गुरूवाणी की पँक्ति कहकर दो वर्ष बड़े भाई को साँत्वना दी:
चिंता ताकि कीजिए, जो अनहोनी होइ ।।
इह मारगि सँसार में, नानक थिर नहि कोइ ।।
इन दोनों शहीदों को मेरा कोटी-कोटी नमन....



धन्य है दशम  गुरु,
धन्य थे ये दोनों  लाल,
प्राण दिये पर धर्म न छोड़ा,
शहादत की   जलाई मशाल....
क्रिसमस और नव-वर्ष का,
हम खूब  जश्न मना रहे हैं,
इनकी शहादत   तक भूल गये,
सोचो हम कहां जा रहे हैं?....
अब पेश है....कुछ चुनी हुई रचनाएं....



बंद हृदय में खिल रहे, संवेदन के फूल
छंद रचे मन बाबरा, शब्द शब्द माकूल 
एक अजनबी से लगे,अंतर्मन जज्बात
यादों की झप्पी मिली, मन, झरते परिजात 


माँ पहली आहट से हैं जानती
पिता की धड़कन आहट बनती
ये ठहराव ,ये उड़ान क्यों अटकती
हर आहट क्यों धड़कन सहमाती
अब न तो दूब है ,न ही धूप का साया
तलवों तले छाले हैं ,सर पर झुलसन
न ही कोई ओर है न ही कोई छोर
कितनी लम्बी लगती सांसों की डोर   ...... निवेदिता

मुश्किलों से सामना
ये हुई बात |
जगाते रहो
उम्मीदों को दीप पे
फूलों के वर्षा |

देखते ही देख़ते काल में समा जाऊँगा
बस एक तारीख बन कर रह जाऊँगा
तुम्हारा इंतजार करूँगा तुम्हे बुलाऊँगा
बस एक बार आवाज देना दौड़ा चला आऊँगा
तुम्हें अपने साथ बीते कल में ले जाऊँगा
दो पल के लिए ही सही तुमसे मिलकर मुस्कुराऊंगा
सच कहो तुम्हें मेरी याद आयेगी न ?

लाचारी तन बेच रही है
सौदाई तन मोल रहे
मानव अंगों का व्यापार फूलता
दे बेबस धन मांग रहा -..

वह राहगीरों का एकमात्र संबल थी
अँधेरे से होकर गुजरते क़दमों का आत्मबल थी
लौ को एहसास था
अपने नन्हे से वजूद के महत्त्व का
सो
अपनी शक्ति भर
हवा से लड़ती रही
रात भर जलती रही


आज के रचनाकार
 
  • आदरणीय शशि पुरवार 

  • आदरणीय निवेदिता श्रीवास्तव

  • आदरणीय रामशरण महर्जन
  •           
  • आदरणीय नीतू ठाकुर 

  • आदरणीय अनुपमा पाठक


  • आज के लिये बस इतना ही....
    आप सब को नव-वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं....

    12 टिप्‍पणियां:

    1. शुभ प्रभात भाई कुलदीप जी
      अच्छा चयन
      मनभावन रचनाएँ
      सादर

      जवाब देंहटाएं
    2. उम्दा प्रस्तुतिकरण....लाजवाब लिंक संकलन...

      जवाब देंहटाएं
    3. "चिंता ताकि कीजिए, जो अनहोनी होइ ।।
      इह मारगि सँसार में, नानक थिर नहि कोइ ।।"
      शहीदों को कोटि कोटि नमन!

      ***
      सुन्दर प्रस्तुति!
      आभार!

      जवाब देंहटाएं
    4. आदरणीय कुलदीप जी प्रस्तुति में.नवीनीकरण प्रभावित कर रही है।सभी रचनाएँ अत्यंत सराहनीय हैं। बहुत सार्थक और सुंदर अंक आज का।

      जवाब देंहटाएं
    5. आदरणीय कुलदीप जी शहीदों को शत शत नमन
      बहुत ही ह्रदय स्पर्शी प्रसंग लिखा आपने...नाताल के उत्सव में तो लोग उन्हे भुला ही बैठे थे ....सभी रचनायें बहुत सुंदर है ....मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार

      जवाब देंहटाएं
    6. आदरणीय कुलदीप जी -- आज के संयोजन में भूमिका के रूप में दशमेश पिता पूजनीय गुरु गोविन्द सिंह जी के वीर शिरोमणि साहिबजादों का भावुक स्मरण लाजवाब है | मुगल शासन ने क्रूरता की सभी सीमाएं लाँघ दो मासूम बच्चो को जो अमानवीय सजा दी वह किसी पत्थर दिल इनसान की आँखों में भी आसूं भर देती है | पर उनके स्वाभिमानी बलिदान ने सुप्त मानवता में एक चिंगारी भर दी | गुरु गोविन्द सिंह जी के चारो साहिबजादे स्वाभिमान के रण के अमर योध्या बने | मानवता के अस्तित्व तक उनका नाम अमर रहेगा |गुरु जी ने भक्ति के नाम पर
      अशक्त हो चुकी जनता में नवचेतना का संचार किया और सोये लोगों को स्वाभिमान हेतु बहादुर योध्या बनने के लिए प्रेरित किया -- यहाँ तक कि गुरु परम्परा की जगह उन्होंने गुरबानी अर्थात गुरु की वाणी को महत्व दे गुरुओं की शिक्षा से भरपूर विभिन्न गुरुजनों के काव्यात्मक उपदेशों के संग्रह ग्रन्थ साहिब को ही अपना गुरु मानने का आदेश दिया | उन्होंने बलिदान के लिए प्रेरित कर लोगों से कहा --
      ये तो है घर प्रेम का -
      खाला का घर नाहीं ;
      शीश उतारी भूंई घरे -
      तब उतरे इ माहि |
      सो ऐसे पराक्रमी पिता की संताने बलिदान से पीछे कैसे हटती ? नमन है उनकी शाहदत को और उनके छोटी सी उम्र में स्तब्ध कर देने वाले पराक्रम को !!!!!! आज के संकलन के सफल आयोजन पर आपको हार्दिक बधाई और सभी रचनाकारों को भी शुभकामनाएं | सादर --

      जवाब देंहटाएं
    7. एकदम अलग हटकर हैं आज की रचनाएँ ! मर्मस्पर्शी प्रस्तुति । सादर ।

      जवाब देंहटाएं

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