सादर अभिवादन।
बीते कल और परसों ख़ासे चर्चा में रहे क्योंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय में "राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद" पर सुनवाई को लेकर जनमानस में भारी कौतूहल मौजूद था। अब यह सुनवाई 8 फरवरी 2018 तक स्थगित कर दी गयी है। सुनवाई टालने का कारण 19590 पेज़ का अनुवाद जिसमें से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की ओर से 3260 पेज़ परसों तक नहीं जमा कराये जा सके। सात भाषाओँ में अनुवाद का मुद्दा बड़ा पेचीदा है।
आइये आज चर्चा करते हैं पाँच रचनाओं की जोकि ऊपर वर्णित मुद्दे पर अपना-अपना नज़रिया आपके समक्ष रखती हैं ( चार रचनाऐं- राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी , कुलदीप ठाकुर जी, आशुतोष नाथ त्रिपाठी जी, विजय राज बली माथुर जी ) एक रचना ("शोषित" - ध्रुव सिंह "एकलव्य" जी ) सदियों से समाज में व्याप्त रही शोषण की प्रथा और स्वयं के लिए FEEL GOOD की पृष्ठभूमि बनाये रखने की सामंती सोच पर
प्रहार करती है। आज भी भारतीय समाज इस सोच का
किसी न किसी रूप में शिकार है।
लीजिये अब रचनाओं से रूबरू होइये -
कितनी विडम्बना है इस देश के सांस्कृतिक प्रतीक चिन्हों की कि
उन्हें अपने होने का सबूत देना पड़ता है. भगवान श्रीराम की जन्मभूमि उनकी अपनी होकर भी उनकी अपनी नहीं हो पा रही थी. सबूतों,
गवाहों, बयानों, अदालतों के मानव-निर्मित सत्य वास्तविक सत्य को झुठलाने का कार्य करने में लगे थे. देश में रहकर, देश का दाना-पानी
अपने उदर में प्रविष्ट करने वाले ही देश की सांस्कृतिक विरासत
को नकारने का काम करने में लगे हैं
जब मिलता है तुम्हे वनवास
प्रसन्न होते हैं देवगण
क्योंकि वे जानते हैं
वनवास के दिनों में ही तुम,
धरा को असुरों से मुक्त करते हो....
न शक्ति थी किसी में
मंदिर का एक पत्थर भी हिला सके,
धर्म की रक्षा के लिये ही
हे राम तुम्हारी सृष्टी में
हैं कोटि कोटि गृह बसे हुए..
इस गर्भ गृह की रक्षा में,
आखिर अब कितनी बलि चढ़े...
इन लाशों के अम्बारों पर
बाबर और बाबरी बसतें हैं...
यहाँ हनुमान हैं कई खड़े...
जो राम ह्रदय में रखतें हैं...
आस्था और विश्वास के नाम पर गुमराह करके भव्य राम मंदिर निर्माण के नाम पर डॉ भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाड़ दिवस पर 25 वर्ष पूर्व 06 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया गया था और आज भी वही राग अलापा जा रहा है उस पर नूपुर शर्मा जी का दृष्टिकोण है कि, ' भूखे भजन होय न गोपाला ' अतः उन्होने भव्य मंदिर के स्थान पर भव्य चिकित्सालय व विद्यालय के निर्माण की मांग रखी है जो सर्वथा उचित है और उसका समर्थन प्रत्येक भारतीय को करना चाहिए ।
सुन 'बुधिया' ! कोई देख ले नाला
ना मंदिर ना कोई 'शिवाला'
देख नहर में शव जो पड़ा है
नहीं कोई 'ज़ल्लाद' खड़ा है
डाल दे अपने कलुषित मुख को
पी ले नीर ,जो 'आत्मतृप्ति' हो
आपकी सेवा में फिर हाज़िर होंगे अगले गुरूवार। आपकी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रियाओं और उपयोगी सुझावों की प्रतीक्षा में।
रवीन्द्र सिंह यादव
शुभ प्रभात....
जवाब देंहटाएंजब मिलता है तुम्हे वनवास
प्रसन्न होते हैं देवगण
क्योंकि वे जानते हैं
वनवास के दिनों में ही तुम,
धरा को असुरों से मुक्त करते हो....
बहुत सुन्दर
सादर
सुंदर संकलन!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति रवींद्र जी।
जवाब देंहटाएंआदरणीय रविंद्र जी प्रणाम आज की प्रस्तुति पढ़कर अजीब सी कश्मक़श में फसा हूँ। कौन है सही और गलत कौन ? मंदिर जाऊँ या मस्जिद ! अथवा मानवता पर आधारित हमारे प्यारे संविधान का अनुसरण करूँ।
जवाब देंहटाएंप्रश्न है ? मानवता के लिए क्या जरूरी है ?
मंदिर ?
मस्जिद ?
अथवा मूलभूत आवश्यकताओं हेतु
हॉस्पिटल और विद्यालय जो सच्चे मानवता का पाठ पढ़ाता हो।
ये हम पर निर्भर करता है हम क्या चाहते हैं। देश में शांति व्यवस्था ,रोजगार ,राष्ट्र की प्रगति अथवा वैमनस्यता एक दूसरे के प्रति ! मंदिर हो मस्जिद इससे न तो आपका भला होगा न ही इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का। धर्म हमें जोड़ता है न कि तोड़ता है ! अतः मेरे विचार से हमें अपने धर्मनिरपेक्ष संविधान का अनुसरण करना चाहिए। आज की प्रस्तुति तथ्यों पर आधारित और हमारा सही मार्गदर्शन करने में सक्षम है। नमन आपको
उषा स्वस्ति..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंंदर विचारशील प्रस्तुति
सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवम् शुभकामनाएँ
धन्यवाद
बहुत उम्दा संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुतिकरण एवं उम्दा पठनीय लिंक संकलन....
जवाब देंहटाएंमंदिर या मस्जिद ?
बचपन से ये विवाद सुनते आये हैं दो दिन की चुप्पी फिर वहीं का वहीं....
कुछ भी बने क्या फर्क पड़ेगा गरीबों को तो फुटपाथ पर ही रहना है उनके लिए तो मन्दिरों में भी ताले लग जाते हैं
भगवान की पूजा का भी समय होता है....मंदिर के बाहर ठंड से ठिठुरते लोग मंदिर के बरामदे मे भी सर नहीं ढक सकते....
बिल्कुल सही सुधाजी। क्या फायदा ऐसे मंदिर का जिनमें कोई गरीब ठिठुरती रातों में शरण ना पा सके...
हटाएंसुप्रभात रविंदर जी,
जवाब देंहटाएंविवादों की मानिंद मेरी लंबी सी टिप्पणी हें।ये
कल की बात हैं, एक ट्युशन पढ़ने आए बच्चे ने पुछा मुझसे दीदी ये लोग इतना शोर क्यों मचा रहे हें।पुरे घर में अल्ल्लाह , भगवान गुंज रहे हें,ये तो हमारे साथ साथ उन
उपर बैठे भगवानों को भी सोचने पर मजबुर कर रहे होंगें कि आखिर इस ढांचे के नीचे था क्या....,?
आप चैनल बदलो हमें पढ़ना हें।
ये कहता है मुझसे देश का आने वाला.भविष्य...।पर उसकी भी गलती नहीं हे ये मुद्दा तो तब से विवादित हैं जब शाय़द ये सवाल हमने भी पुछे थे,पर उत्तर सिफ़र रहा।
कुछ कहे मंदिर का ढांचा था कुछ कहे मस्जिद का...पर ये विवाद युं ही चलता रहेगा,
जब तक एक हिंदुस्तानी मन ये ना कहेगा, हां कुछ ऐसा नवर्निमाण करते हैं,जब हमारी न ई पीढ़ी अयोध्या आए तो ..देश की एकता अखंडता की बात करती .. हुवे.उत्तम विचार लेकर यहां से लौटें...पर ये तभी संभव हे जब ये दो मुख्य धर्मावलंबियों के मध्य वैचारिक मतभेद खत्म हो,आप लोग positive way में चर्चा करें,धर्म कोई किसी का नहीं छीन रहा,जब तक अयोध्या की आग में राजनीतिक रोटियां सिंकती रहेंगी ये नौनिहाल क्या उनके भी नौनिहाल यहीं पुछेंगे आखिर ढांचे के नीचे था क्या?
बेहतरीन संकलन आपने प्रस्तुत किया सोचने पर विवश कर डाला ध्रुव जी की तरह आखिर जाएं तो कहां ं जाएं .... आपकी संचालक कीभुमिका तो हमेशा ही ज्वलंत मुद्दों पर कमाल का प्रभाव छोड़ती हैं...!!
बहुत सुन्दर बहुत उम्दा संकलन
जवाब देंहटाएं'मंदिर वहीं बनाएँगे'का समर्थन करें या चिकित्सालय या विद्यालय का ? एक आम हिंदू के लिए बड़ा धर्मसंकट है...एक तरफ धर्म और आस्था, दूसरी तरफ मानवता!
जवाब देंहटाएंदुःख की बात है कि आज भी मानवता पर धर्म और आस्था की जीत होती है। दोनों धर्मों के लोग चाहते भी होंगे कि वहाँ कोई धार्मिक स्थान ना बने,स्कूल या अस्पताल बने,तो भी खुलकर सामने आकर नहीं कहेंगे। जब तक हमारा स्वर एक नहीं होता, तब तक मन प्राण के एक होने की बात करना बेमानी है। सुंदर संकलन लाने के लिए आदरणीय रवींद्र जी का धन्यवाद।
आदरणीय रवींद्र जी,
जवाब देंहटाएंयह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर आम जनमानस की मासूम भावनाओं से वर्षों खिलवाड़ किया गया है। हम तो यही मानते है किसी भी जाति या धर्म के होने के पहले एक इंसान है हम और इंसानियत के धर्म का निर्वहन ठीक प्रकार से कर ले वही बहुत होगा।
आज की विचारणीय प्रस्तुति में आपने मौन रहकर रचनाओं के माध्यम से बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है।
आपकी विचारशीलता और समसामयिक घटनाओं पर जागरूकता बेहद प्रभावित करती है।
सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगी।
शुभदोपहर.....
जवाब देंहटाएंदेर से आ सका....
क्षमा करें.....
धर्म के नाम पर देश का बंटवारा हुआ........
फिर भी भारत में सभी धर्मों को समानता का अधिकार मिला.....
ये तभी संभव हो सका जब हिंदू संस्कृति व हिंदुओं में संवेदनशीलता है.... ऐसा पाकिस्तान में क्यों नहीं हुआ?....
आज हिंदू ही चाहते हैं कि वहां मंदिर/मस्जिद न बनाकर अन्य सारवजनिक स्थान बने....दूसरा पक्ष केवल अटल है......