प्रणामाशीष
लेख्य-मंजूषा
पुस्तक मेला के मंच पर
कल (10-12-2017)
दोपहर 2 बजे से
आप दें शुभकामनाओं की लड़ी
मेरी आकांक्षा
ईमानदारी की तिनकों से बनाऊं अपनी एक सुंदर आसियाँ
चरित्र की पूँजी से धनी कर दूं मैं अपनी वादियाँ
मातृभूमि को भी मेरे जन्म पर हो अभिमान
यही आकांक्षा है मेरी मैं छू लूं आसमान
आकांक्षा
ठीक उसी मंहगार्इ की तरह
एक दिन मेरी 'आकांक्षा,
पूरी हो गयी,
तब,फिर एक नयी
'आकांक्षा ने जन्म लिया।
यदि नहीं होती,
मेरी यह 'आकांक्षा।
तो,मेरा जीवन कैसे कटना,
नीरस लगता,
मुझको ये संसार।
कैसे पाता, मैं,
जीवन का यह प्यार।।
आकांक्षा
रेखाएं
सीमान्त की धुरी पर
सीधी समझ से परे झुककर
उलझ कर बन जायें
वक्र
कैद
मन के रूपक
में व्यक्त होती विषयी
सूक्ष्म लौ में जलती
उन्मुक्त
आकांक्षा
फिर मिलेंगे....
आदरणाीय दीदी
जवाब देंहटाएंसादर नमन
अग्रिम शुभ कामनाएँ
बेहतरीन प्रस्तुति हरदम की तरह
सादर
सस्नेहाशीष संग आभार छोटी बहना
हटाएंआदरणीया विभा दी,
जवाब देंहटाएंसुप्रभातम्।
सदैव की भाँति सबसे अलग एक विषय पर बहुत सुंदर प्रस्तुति आपकी। सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगी। आभार आपका दी।
विभा जी के अलग अंदाज की सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति,एक ही विषय और विचार पर विविध रचनाएँ ।
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