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गुरुवार, 22 मई 2025

4496...इच्छाएँ सस्ती थी, ज़रूरते महंगी...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया विभा ठाकुर जी की रचना से।

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

कविता | कुछ लोग | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कुछ लोग नहीं जानते

कि क्या खो रहे हैं वे!

*****

सत्य दम तोड़ रहा है

मैंने देखा है

सत्य को न केवल

पराजित होते

बल्कि

दम तोड़ते

हुए भी

*****

1464-तुम मिल गए

हुई धक-धक
आज भी
सोच के सहन में लगे
देह के पेड़ की टहनी पर
बहुत देर से बैठा
यादों का पंछी
उड़ गया
काँप गई
रोम- रोम की पत्ती

*****

प्रतिक्रिया

वक्त कम था अरमान बड़े थे

इच्छाएँ सस्ती थी, ज़रूरते महंगी

एक को चुना तो दूसरी हाथ से फिसल जाती

दूसरे को पकड़ना चाहा तो

पहली आँख से ओझल हो गयी

*****

अभिनय करते हैं मेरे शब्द

उनके आकर्षण से

शब्द बादल बन बरसते हैं

मन की घाटी से तब

शब्दों के धार निकलते हैं

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव


6 टिप्‍पणियां:

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