।।प्रातःवंदन।।
"अँधेरा रात-भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर,
सदा ही नाश के हाथों नया निर्माण होता है।
सुबह औ' शाम आ-आ कर लगाता काल जब चक्कर,
धरा दो साँस में क्या है तभी यह ज्ञान होता है !"
बालस्वरूप राही
प्रस्तुतीकरण के क्रम को आगे बढाते हुए..
उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी,
हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी,
अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहना,..
✨️
लिखने को शब्द नहीं , भावों की एक मुस्कुराहट ले लो ।
अगर ऐतराज न हो कोई तो , तमाम दुख - दर्द के पार
जिंदगी को जिंदगी के असल नजरिए की निगाह से झाँक .
✨️
1
मन के अंधेरे में
मृत्यु की आहट
जैसे खोल कर किवाड़
आती हो तुम ।
✨️
स्त्री अपना स्वाभिमान रौंद देती है
उस घर की ख़ातिर
जिसे मकान से घर बनाते हुए
उसने हज़ारों बार सुना ….
“निकल जाओ मेरे घर से “..
✨️
कितनी आसानी से हम कहते हैं
कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं ..."
बिना बरसे ये बादल
अपने मन में उमड़ते घुमड़ते भावों को लेकर
आखिर कहां!
किस हाल में होते हैं ?
यह न हमने सोचा,..
✨️
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आभार। कृपया ब्लाग को फॉलो भी करें
आपकी टिप्पणियाँ एवं प्रतिक्रियाएँ हमारा उत्साह बढाती हैं और हमें बेहतर होने में मदद करती हैं !! आप से निवेदन है आप टिप्पणियों द्वारा दैनिक प्रस्तुति पर अपने विचार अवश्य व्यक्त करें।
टिप्पणीकारों से निवेदन
1. आज के प्रस्तुत अंक में पांचों रचनाएं आप को कैसी लगी? संबंधित ब्लॉगों पर टिप्पणी देकर भी रचनाकारों का मनोबल बढ़ाएं।
2. टिप्पणियां केवल प्रस्तुति पर या लिंक की गयी रचनाओं पर ही दें। सभ्य भाषा का प्रयोग करें . किसी की भावनाओं को आहत करने वाली भाषा का प्रयोग न करें।
३. प्रस्तुति पर अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .
4. लिंक की गयी रचनाओं के विचार, रचनाकार के व्यक्तिगत विचार है, ये आवश्यक नहीं कि चर्चाकार, प्रबंधक या संचालक भी इस से सहमत हो।
प्रस्तुति पर आपकी अनुमोल समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक आभार।