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बुधवार, 21 मई 2025

4495..अगर ऐतराज न हो तो पढें..

।।प्रातःवंदन।।

 "अँधेरा रात-भर जग कर गढ़ा करता नया दिनकर,

सदा ही नाश के हाथों नया निर्माण होता है।

सुबह औ' शाम आ-आ कर लगाता काल जब चक्कर,

धरा दो साँस में क्या है तभी यह ज्ञान होता है !"

बालस्वरूप राही

प्रस्तुतीकरण के क्रम को आगे बढाते हुए..

वक्त की परछाइयां !

उस हवेली में भी कभी, वाशिंदों की दमक हुआ करती थी,

हर शय मुसाफ़िर वहां,हर चीज की चमक हुआ करती थी,

अतिथि,आगंतुक,अभ्यागत, हर जमवाडे का क्या कहना,..

✨️

एक नदी हो जाओ !

लिखने को शब्द नहीं , भावों की एक मुस्कुराहट ले लो ।

अगर ऐतराज न हो कोई तो , तमाम दुख - दर्द के पार

जिंदगी को जिंदगी के असल नजरिए की निगाह से झाँक .

✨️

मृत्यु और प्रेम

मन के अंधेरे में 

मृत्यु की आहट

जैसे खोल कर किवाड़ 

आती हो तुम । 

✨️

स्त्री और स्वाभिमान

स्त्री अपना स्वाभिमान रौंद देती है

उस घर की ख़ातिर

जिसे मकान से घर बनाते हुए

उसने हज़ारों बार सुना ….

“निकल जाओ मेरे घर से “..

✨️

जो गरजते हैं वे बरसते नहीं

 कितनी आसानी से हम कहते हैं 

कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं ..."

बिना बरसे ये बादल 

अपने मन में उमड़ते घुमड़ते भावों को लेकर 

आखिर कहां!

किस हाल में होते हैं ?

यह न हमने सोचा,..

✨️

।।इति शम।।

धन्यवाद 

पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️

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