सादर अभिवादन
भीतर के "मैं" का मिटना ज़रूरी है.... !
सुकरात समुद्र तट पर टहल रहे थे। उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी।
वो उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा , -''तुम क्यों रो रहे हो?''
लड़के ने कहा- 'ये जो मेरे हाथ में प्याला है मैं उसमें इस समुद्र को भरना चाहता हूँ
पर यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं।''
बच्चे की बात सुनकर सुकरात विस्माद में चले गये और स्वयं रोने लगे।
अब पूछने की बारी बच्चे की थी।
बच्चा कहने लगा- आप भी मेरी तरह रोने लगे पर आपका प्याला कहाँ है?'सुकरात ने जवाब दिया- बालक, तुम छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहते हो,और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में सारे संसार की जानकारी भरना चाहता हूँ।आज तुमने सिखा दिया कि समुद्र प्याले में नहीं समा सकता है , मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा।''यह सुनके बच्चे ने प्याले को दूर समुद्र में फेंक दिया और बोला- "सागर अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो मेरा प्याला तो तुम्हारे में समा सकता है। "इतना सुनना था कि तब सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले-"बहुत कीमती सूत्र हाथ में लगा है।हे परमात्मा ! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते हैं पर मैं तो सारा का सारा आपमें लीन हो सकता हूँ ।
"ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान उस बालक में समा गए।
सुकरात का सारा अभिमान ध्वस्त कराया। जिस सुकरात से मिलने के सम्राट समय लेते थे वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में लोट गए थे।ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं तब आपके अंदर का "मैं " सबसे पहले मिटता है।या यूँ कहें....जब आपके अंदर का "मैं" मिटता है तभी ईश्वर की कृपा होती है।
आज की रचनाएँ
एक नयी सुबह का
बस दोनों के मन में उत्साह हो,
सारे पुराने के चेहरे उतारे
एक शाम अजनबी बन के गुज़ारे
कुछ नये नग़मे उगाता हूँ
सपनो के शहर होके आता हूँ
तुम बस तुम बन के रहो
“मैं”फिर मैं बन जाता हूँ
अब एक आख़िरी सवाल। ‘जागने से राजनीति और राष्ट्र का भला तो समझ में आता है पर व्यक्तिगत लाभ भी होता है ? मैंने ख़ुद की अंतरात्मा को ललकारने की कोशिश की।
‘सबसे बड़ा लाभ तो यही कि पुरानी सारी शपथें अपने आप निरस्त हो जाती हैं।उनका कोई दुष्प्रभाव भी नहीं पड़ता।आत्मा-धारक नई शपथ धारण करते हैं।जिस संविधान और लोकतंत्र को अपमानित करने का आरोप लगता है,नई शपथ लेते ही वह धुल जाता है।’ अंतरात्मा ने मुझे निरुत्तर कर दिया।
सोचा कि कुछ पल तो
आराम मिलेगा तुझको
अपने हिस्से के बादल
सब सौंप दिए तुझको
मुझको भी सफर करना है साथी
मेरी धूप मुझे लौटा दो
मेरी छाव मुझे लौटा दो ।
बसंत आया मधुरस छाया ,
धरा पर मुस्कुराते दिन
अम्बुआ डार कोयल कुहकी ,
बाग में गुनगुनाते दिन
..
है महक रहे बाग बगीचे,
बिखरी खुशबू यहाँ वहाँ
इधर उधर नाचती तितलियाँ ,
है उपवन महकाते दिन
रोज़ देखता हूँ खिड़की के झरोखे से
सूखी टहनी से लटके बियाबान घौंसले की उदासी
महसूस करता हूँ बाजरे के ताज़ा दानों की महक
कल आ रही है न सखी
सादर
भीतर का मन ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन या दोस्त साबित हो सकता है हेम उस एहम से बचना है
जवाब देंहटाएंअच्छे लिंक्स
मुझे स्थान देने के लिए dhanayawad
बहुत सुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंसुंदर हलचल … आभार मेरी रचना को शामिल करने के लिए …
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका जो आपनें मेरी रचना को शामिल कर उचित सम्मान दिया ।
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