शीर्षक पंक्ति: आदरणीया आशा लता सक्सेना जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में आज पढ़िए कुछ ताज़ा रचनाएँ-
दो कबूतर एक
साथ
कबूतर सामान
नही आराम
-है मेहनती
किसी से कम नहीं
अलग दिखे
संदेश देता
अपनी ही प्रिया को
पत्र दे कर
कुछ याद आया--
तो, अपना ठिकाना
भी याद नहीं हम को,
उसे देखते ही वो खोया हुआ घर याद आया,
आईना पूछता रहा, ज़िन्दगी भर
का हिसाब,
ख़्वाब से उभरे तो इश्क़ का असर याद आया,
उड़ते पंछी नील गगन पर
दल बना उड़ते मिल कर
संगी साथी
देते इक दूजे का साथ
चहक चहक खुशियाँ बांटे
गीत मधुर स्वर में गाते
उड़ते पंछी
नील गगन पर
उन्मुक्त इनकी उड़ान
यूं हँसो तुम
कहीं हो ना जाए जुदा, वक्त से, ये परछाईं,
कहीं कर न दे, वक्त ये रुसवाई,
चलो, संग हम चले, कहीं वक्त से परे,
बहके-बहके!
यूं हँसो तुम, और बंद हो जाएं पलकें...
अवमानना संविधान की
जो भी दल सत्ता में होता है वह चुनावों में अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए हर
दांव चलता है, हर पैंतरा आजमाता है ! ऐसे में विरोधी दलों के नेता, जो खुद उसी खेल के खिलाड़ी हैं, ऐसे दांव-पेंच वे खुद भी बखूबी आजमाते
रहते हैं, उनको अपनी अलग मजबूत रणनीति बना मुकाबला करना चाहिए नाकि सिर्फ सत्ता पक्ष को
गरियाते हुए चिल्ल्पों मचा के अपना ही जुलुस निकलवाना चाहिए ! जनता तो इनका तमाशा
देख ही रही है पर आश्चर्य है कि संविधान के संरक्षक क्यों चुप हैं.........!
*****
फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
सुप्रभात ! सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअच्छी सुन्दर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंसम्मिलित कर मान देने हेतु हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं