शीर्षक पंक्ति:आदरणीय उदयवीर सिंह जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पाँच रचनाओं के ताज़ा लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ-
ऐसी आस्था से तो हम
नास्तिक भले और ऐसी अक़ीदत से तो हम मुल्हिद भले
क्या उदयपुर के ये भाड़े के क़ातिल सच्चे
अर्थों में इस्लाम की ख़िदमत कर रहे हैं?
पांच सौ साल से भी ज़्यादा वक़्त हो गया है जब
कि कबीर ने कहा था –
‘अरे इन दोउन राह न पाई’
आज सच्ची राह दिखाने वाले तो हमें कहीं दिखाई
नहीं देते लेकिन हमको नेकी की और भाईचारे की राह से भटकाने वाले गली-कूचे में ही
क्या, तमाम जनप्रतिनिधि सभाओं में भी बड़ी तादाद में मिल जाते हैं.
लोकतंत्र
भ्रष्टाचार दिन दूना, मानवता का ह्रास।
समाज सेवा पास नहि,लोकतंत्र परिहास।।2।।
हसरतों की छांव में कुछ पल बिताने की कशिश,
खोलना था द्वार को ताला
लगाकर रख दिया।
छत पर आकर बैठ गई है अलसाई-सी धूप
अम्मा देखो कितनी जल्दी,
आज गई हैं जाग।
चौके में बैठी सरसों का,
घोट रही हैं साग।
दादी छत पर ले आई हैं,
नाज फटकने सूप।
रंग-बिरंगे फूलों की क्यारी,
वह अमियां की छाया।
सखियों संग घूमना-फिरना,
खेल -खिलौनों की माया।
झगड़ों के संग याद आता है,
भैया -दीदी का दुलार।
भूले नहीं भूलता है मन,
मायका का प्यारा संसार।
*****
फिर मिलेंगे
रवीन्द्र सिंह यादव