सोचों की रोशनदानविहीन वातानुकूलित कमरों में मानो ऐ साहिब!
अपनापन की गौरैयों का पहले जैसा रहा आवागमन भी अब कहाँ ?
रूहानियत बेपता, रुमानियत लापता, मिलते हैं अब मतलब से सब,
प्यार से सराबोर जीता था मुहल्ला कभी, वो जीवन भी अब कहाँ ?
यूं ही नहीं आता वसंत
लड़नी होती है, लंबी लड़ाई
धूप को
कोहरे के साथ।
बदल दे हाथ के लकीरों
को, ऐसा कोई
मेहरबाँ न
मिला,
ज़िन्दगी जीने के लिए, सभी
दौड़े जा रहे हैं बेतहाशा,
नए दिन के साथ
नए षड्यंत्र,
वही
पास ही की सीट पर बैठे एक हेंडसम नौजवान ने हाथ का इशारा किया और लड़की को अपनी सीट दी,हल्की मुस्कान के साथ दोनों ने एक-दूसरे का स्वागत किया। लड़की अब सहज अवस्था में थी। सीट मिलते ही वह अपने आपको औरों की तुलना में बेहतर समझने लगी।
....
कल मिलिएगा विभा दीदी से
-श्वेता सिन्हा
वजनदार रचनाओं का संकलन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
सादर..
उम्दा लिंक्स चयन
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रस्तुति
बेहतरीन अंक..
जवाब देंहटाएंसादर.
उम्दा लिंक आज की
जवाब देंहटाएं\
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकहानी अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिंक्स!
बहुत ही सुंदर सराहनीय संकलन।
जवाब देंहटाएंमुझे स्थान देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया श्वेता दी।
सादर
आकर्षक एवं मनमोहक प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार एवंं शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन व प्रस्तुति, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीया श्वेता जी - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंAti sundar rachnaye !!!
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