स्नेहिल अभिवादन
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पढ़ने के क्रम में मिली एक गज़ल
जो दिख रहा है सामने वो दृश्य मात्र है।
लिखी रखी है पटकथा मनुष्य पात्र है।।
नये नियम समय के हैं असत्य सत्य है,
भरा पड़ा है छल से जो वही सुपात्र है।
विचारशील मुग्ध है कथित प्रसिद्ध पर,
विचित्र है समय,विवेक शून्य मात्र है।
है साम-दाम-दंड-भेद का नया चलन,
कि जो यहाँ सुपात्र है, वही कुपात्र है।
घिरा हुआ है पार्थ पुत्र चक्रव्यूह में,
असत्य सात और सत्य एकमात्र है।
कहीं कबीर, सूर की, कहीं नज़ीर है,
परम्परा से धन्य ये गज़ल का छात्र है।
अवशेष
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आराम कुर्सियां
वैचारिक उल्टियां
प्रायोजित संगोष्ठियां
मुक्ति की बातें
विद्रुप ठहाके
एक मोती क्या जो टूटा उस माल से
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कौन रुकता यहाँँ है किसी के लिए
सोच उसकी भी आगे निकल ही गई
तेरे जाने का गम तो बहुत था मगर
जिन्दगी को अलग ही डगर मिल गई
ज़िंदगी भी रेत-सी फिसल गयी
मुस्कुराए हम भी वो भी हंस दिए,
मोम की दीवार थी पिघल गई.
रात भर कश्ती संभाले थी लहर,
दिन में अपना रास्ता बदल गई.
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उम्दा लिंक्स चयन और सराहनीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
शानदार अंक..
जवाब देंहटाएंआभार आपका
सादर..
उव्वाहहहहहह..
जवाब देंहटाएंउम्दा अंक..
सादर..
आभार श्वेता जी।
जवाब देंहटाएंआपकी पसंद बहुत पसंद आई ... परंपरा से धन्य ... गज़ल का छात्र ... बेबाक !
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलनों से सुसज्जित शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंश्वेता जी, सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंलाजवाब प्रस्तुतीकरण उम्दा लिंक संकलन।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने हेतु तहेदिल से धन्यवाद आपका।
बहुत बढियां लिंक संयोजन
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक संयोजन। सभी रचनाकारों को बधाई। प्रस्तुतकर्ता को विशेष बधाई। सादर।
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