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बुधवार, 22 जुलाई 2020

1832..अपाहिज शहर देखिए..

।। भोर वंदन ।।
रोज़मर्रा वही इक ख़बर देखिए
अब तो पत्थर हुआ काँचघर देखिए।

सड़कें चलने लगीं आदमी रुक गया
हो गया यों अपाहिज सफ़र देखिए।
अश्वघोष 
🌈🌈
एक प्रयास साहित्यिक कृतियों के विविध रूपों को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश..✍


ज़िन्दगी में हैं कई लोग आग हों जैसे
हर अँधेरे में सुलगते हैं जुगनुओं जैसे

सोच लेता हूँ कई बार बादलों जैसे
भीग लेने दूं किसी छत को बारिशों जैसे
🌈🌈




लगभग साल डेढ़ साल पहले की बात है, मैंने इंस्टा पर एक नया अकाउंट बनाया था । आत्मविश्वासी महिलाओं , क्रियेटिव ज्वैलरी और हैंडलूम साड़ीयों को यहाँ मैं फॉलो किया करती थी। रोज कुछ नया तलाशती रहती थी

🌈🌈



गूंज उठी जब जब अंतस से
 लेखन ने अनुबंध किये।
कितने कोरे पन्नों ने फिर
 चित्र लिखित से गीत दिये।
🌈🌈

बाढ़ है
सुखार है
रोग है
सब आम आदमी के लिए है

बेकारी है
बेरोज़गारी है
वेतन में कटौती है
🌈🌈


अंदाज़े गाफ़िल
तू तो अब ख़्वाबों के भी पार हुआ जाता है
बोल क्या ऐसे भी लाचार हुआ जाता है

सोचा है जबसे के अब कुछ तो हो शिक़्वा तुझसे
जी मेरा मुझसे ही दो चार हुआ जाता है..

🌈🌈
हम-क़दम का एक सौ अट्ठाइसवाँ विषय
यहाँ देखिए
🌈🌈

।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ‘तृप्ति’..✍


8 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन..
    तू तो अब ख़्वाबों के भी पार हुआ जाता है
    बोल क्या ऐसे भी लाचार हुआ जाता है
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत लाजवाब आज की लिंक चर्चा ...
    आभार मेरी गज़ल को जगह देने के लिए ...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति पमृमी जी, भूमिका में लुभानी शब्द रचना ।
    शानदार लिंक चयन।
    सभी रचनाकारों को बधाई
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर प्रस्तुति..मेरे संस्मरण को स्थान देने के लिए शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं

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