गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
लेकिन सपनों से खाली
इन रातों में
थके लड़खड़ाते कदमों से
खुद को ढूँढ निकालना
और असीम दुलार से
खुद ही को निज बाहों में समेट
आश्वस्त करना
मुझे अच्छा लगता है!
आज की परिस्थिति पर कविता...शैल सिंह
वर्षों पीछे ढकेल दिया महामारी ने
निठल्ला बैठे भी क्षति हुई वक्त की
टूटीं बिखरीं मीनारें सपनों की कई
युक्ति सूझे न इस मर्ज़ से मुक्ति की।
अब मैं भी थमा दिया करूँगी उसकी यादों को ख़ामोशी. कुछ भी हो प्रेम तो बने रहने देना है न!
"धीरे बोलो सुमन! पिताजी सुन लेंगे, तुम चिंता न करो धीरे-धीरे उन्हें सब काम करने के लिए कह दूँगा तुम अपना दिमाग मत खराब करो!"
बेटे-बहू का वार्तालाप सुनकर रामनाथ की आँखों से आँसू झरने लगे। उन्होंने बड़े दुखी मन से अपनी अटैची पैक की और बिना कुछ बोले गाँव के लिए निकल पड़े।
"दीदे फाड़-फाड़कर देखती ही रहोगी क्या? वहाँ चौखट पर बैठ जाओ। सूबेदारनी अंदर ही घुसी आ रही है। विधवा की छाँव शुभ कार्य में शोभा देती है क्या?"
सुमित्रा चाची दादी पर एकदम झुँझलाती है।
मैं जरा पसीना पौंछ ही रहा था कि रसोई से आवाज़ आने लगी, मैं अकेली कितना काम करूंगी, मेरा दिल ही जानता है, सारा दिन रसोई में खड़े रहो तो पता चले कोई एक कप चाय तक नहीं पूछने वाला...। और उनकी इन बातों पर बच्चे ही नहीं पिताजी भी हां में गर्दन हिलाते और मुझे घूरते नज़र आते हैं।
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सापेक्ष रचनाएँ..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ..
आभार..
सराहनीय प्रस्तुतीकरण
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय सर.क्षोभ प्रकट करती सार्थक भूमिका.मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु सादर आभार .
जवाब देंहटाएंसराहनीय सार्थक रचनाएं
जवाब देंहटाएंसराहनीय रचनाएं
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार आदरणीय।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार रवीन्द्र जी आज मेरी रचना को आपने हलचल में स्थान दिया है ! अभी अभी इसे देखा ! क्षमाप्रार्थी हूँ विलम्ब से संज्ञान लेने के लिए ! हृदय से धन्यवाद आपका !
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