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शनिवार, 18 जुलाई 2020

1828 मायका

''कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे,
उस जगह से बढ़ के सो!''
-भवानीप्रसाद मिश्र

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
मेरे सिरे से दिखने वाला 6/69 आपके सिरे से 9/96 दिख सकता है
या ऐसा भी होता हो
मेरे सिरे से दिखने वाला 9/96 आपके सिरे से 6/69 दिख सकता है
अन्य बातों की तरह
अपने-अपने अनुभव का ही तो होता है...

नारदमुनि कई दिन से अवकाश पर हैं। अवकाश और बढ़ने वाला है
 जब तक नारदमुनि लौट कर आए तब तक आप यह पढो, 
इसमें विदा होती बहिन के नाम कुछ सीख है।  उम्मीद ही नहीं पूर्ण विश्वास है 
कि यह आप सबको बहुत ही भली लगेगी। क्योंकि यह तो घर घर की कहानी है।

दुबारा पूछा तब जब पहली बार रसोई में गईं थीं रस्म पूरी, करने तब
तब भी उनींदी सुबह में पहले उठने का दायित्व निभाती हूं जब साड़ी पहनती हूं और
कोशिश के बाद भी प्लेट पूरी नहीं बनती है जब सुबह की चाय खुद बनाकर पीती हूं ,
तब जब सब्जी में नमक ज्यादा हो जाता है, तब जब तेज आंच में सूजी थोड़ा जल जाती है
और कोई बताता नहीं हे अगली बार आंच कम रखना,
तब जब कभी थककर बिना बाल गुँथे ही सो जाती हूं ,

उसकी आंखों में पहली बार अपने लिए आंसू देखकर मेरी भी आंखें आंसुओं से लबालब हो गई। हम दोनों ने जी भर के रो लिया, और आंसुओं के साथ सारे गिले-शिकवे बहा दिए। फिर दुबारा आने का वादा भाई से करके वापस घर आ गई।

ठगी-सी मनी चुपचाप जब सबकी आँखों से आंख बचाती गाड़ी में बैठ रही थी तो घर का पुराना नौकर धीरे से बुदबुदाया-खुदको संभाल बेटी। मुस्कुरा, एक भी आंसू मत गिरने देना

पोखर के घाट
बैलगाड़ी, टमटम और हाट
कुछ खाली सा हो गया है अंदर
अपना एक अंश जैसे छूट गया वहीं
लेकिन सामानों के साथ
कुछ और भी सिमट आया साथ

परिवर्तन की आंधी में
वास्तविक कही खो गया
मिलता ब्याज पे ब्याज
वो मूलधन कही खो गया
कोपल हुआ करते थे
पीले पत्तो सा अस्तित्त्व हो गया


–:–:–:–:–:–
अब यह मत कहना, सावन है तो..

मायका याद आता है मुझे !! हर दिल को ...
<><><><>
पुन: मिलेंगे...
<><><><>
हम-क़दम का अगला विषय है-  
'पृथ्वी'
          इस विषय पर आप अपनी
किसी भी विधा की रचना
आज शनिवार शाम तक हमें भेज सकते हैं।

चयनित रचनाएँ हम-क़दम के 127 वें अंक में
आगामी सोमवार को प्रकाशित की जाएँगीं।


5 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीया विभा जी इस सम्माननीय साहित्यिक मंच पर मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार सादर
    सभी रचनाकारों को अभिवादन
    बेहतरी साधुवाद 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर नमन...
    सदाबहार प्रस्तुति
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय दीदी , मायके से नारी का रिश्ता किसी से छुपा नहीं -ना ही छुप पाता है - बुढापे तक मायके से मोह | भारतीय समाज में बहन , बुआ , बेटी को विशेष महत्व मिला है ,जिनके कदमों से मायके में बरकत समझी जाती है | ये अलग बात है धीरे- धीरे नई पीढ़ी इस मोह से मुक्त हो रही है तो अधिकारों के बुनियादी प्रश्नों में आपसी अपनत्व उलझ कर रह गया है | बहुत ही भावपूर्ण रचनाएँ पढवाई आपने | मायके के सुख -दुःख और विभिन्न रंग संजोती हुई | सभी रचनाकारों को बधाई उर आपको भी साधुवाद इस भावपूर्ण अंक के लिए | काफी दिन पहले मैंने भी आयके जाती माँ के भावों को संजोती एक रचना को लिखने का प्रयास किया था जिसे यहाँ लिख रही हूँ | | रचना में गाँव -- मायके का ही परिचायक है --





    माँ ज्यों ही गाँव के करीब आने लगी है -

    माँ की आँख डबडबाने लगी है !
    चिरपरिचित खेत -खलिहान यहाँ हैं ,
    माँ के बचपन के निशान यहाँ हैं ;
    कोई उपनाम - ना आडम्बर -
    माँ की सच्ची पहचान यहाँ है ;
    गाँव की भाषा सुन रही माँ -
    खुद - ब- खुद मुस्कुराने लगी है !
    माँ की आँख डबडबाने लगी है !!


    भावातुर हो लगी बोलने गाँव की बोली -
    अजब - गजब सी लग रही माँ बड़ी ही भोली ,
    छिटके रंग चेहरे पे जाने कैसे - कैसे -
    आँखों में दीप जले - गालों पे सज गयी होली ;
    जाने किस उल्लास में खोयी -
    मधुर गीत गुनगुनाने लगी है !
    माँ की आँख डबडबाने लगी है !


    अनगिन चेहरों ढूंढ रही माँ -
    चेहरा एक जाना - पहचाना सा ,
    चुप सी हुई किसी असमंजस में
    भीतर भय हुआ अनजाना सा ;
    खुद को समझाती -सी माँ -
    बिसरी गलियों में कदम बढ़ाने लगी है !
    माँ की आँख डबडबाने लगी है !!
    शहर था पिंजरा माँ खुले आकाश में आई -
    थी अपनों से दूर बहुत अब पास में आई ,
    उलझे थे बड़े जीवन के अनगिन धागे
    सुलझाने की सुनहरी आस में आई
    यूँ लगता है माँ के उग आई पांखें-
    लग अपनों के गले खिलखिलाने लगी है
    माँ की आँख डबडबाने लगी है !!!
    पुनः आभार और प्रणाम !!

    जवाब देंहटाएं

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