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रविवार, 12 जुलाई 2020

1822....जीवन जैसे हॉलीवुड फिल्मों की तरह होने लगा


जय मां हाटेशवरी......
अभिवादन आप सभी का....
आज की चर्चा का आरंभ.....
कवि धुमिल जी की इस कविता के साथ......
जब मै अपनें ही जैसे किसी आदमी से बात करता हूँ,
साक्षर है पर समझदार नहीं है । समझ है लेकिन
साहस नहीं है । वह अपने खिलाफ चलाने वाली
साजिश का विरोध खुल कर नही कर पाता ।
और इस कमजोरी को मैं जानता हूँ । लेकिन इसलिये
वह आम मामूली आदमी मेरा साधन नहीं है
यह मेरे अनुभव का सहभागी है, बनता है ।
जब मैं उसे भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब समझाता हूँ-और मुझे कविता में
आसानी होती है-जब मैं ठहरे हुए को हरकत
में लाता हूँ -एक उदासी टूटती है,ठंडापन ख़त्म
होता है और वह ज़िंदगी के ताप से भर जाता है ।
मेरे शब्द उसे ज़िंदगी के कई-स्तरों पर खुद को
पुनरीक्षण का अवसर देते हैं, वह बीते हुये वर्षों
को एक- एक कर खोलता है ।
वर्तमान को और पारदर्शी पाता है उसके आर-पार
देखता है । और इस तरह अकेला आदमी भी
अनेक कालों और अनेक संबंधों मे एक समूह
मे बदल जाता है । मेरी कविता इस तरह अकेले को
सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता ।
इस तरह कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि
अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से
भरता है जब कि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को
समूह से विच्छिन्न करता है । यह ध्यान
रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर ।
अब पेश है.....मेरी पसंद.....

जिंदगी
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संतुष्टि घटती है
दौलत बढ़ती है
शांति घटती है
हवस बढ़ती है
हंसी घटती है
और की चाह
करती है तबाह
मौत का दिन तय है
तो काहे का भय है
जब तक जियो
हंस कर जियो

शास्वत प्रेम
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शरीर तक ही सीमागत है वासना
शरीर के सीमा में सब नश्वर है
प्रेम अनंत आकाश की सीमा में है
शास्वत हमेशा हमेशा

मैंने जाने गीत विरह के"

मेरे   सीमित    वातायनन  में,
अनजाने आ  किया   बसेरा।
प्रेम-भाव  का  दिया जलाया,
आज बुझा, कर दिया अंधेरा।
कितने सागर बह-बह निकलें, आँखों को एहसास नहीं है,
मैंने  जाने   गीत  विरह  के, मधुमासों  की आस  नहीं है।

जीवन जैसे हॉलीवुड फिल्मों की तरह होने लगा

किसान मजदूरों की तरह बाहर निकलकर टिड्डिओं को भगाने में लगे हैं. होटल खुले हैं लेकिन वहां के नजारे तो देखिए कि सोशल डिस्टेंसिंग , हाथ में ग्लोब्स व  मुंह पर मास्क है जैसे हम किसी सर्जिकल कार्य के लिए जा रहे हो. तो कही ठेले पर एैसी भीड उमड़ी जैसे भूखे के सामने व्यंजन रख दिये हो. कोरोना हमें खाए या हम ही इसे
खा ले. मास्क जीवन बचाने की आज पहली जरुरत है। जगह जगह कोविड सेंटर तैयार की जा रहे हैं लेकिन बढता संक्रमण व बेड  का हाउसफुल होना  हमारी लचर व्यवस्था को उजागर कर रहा है।

एक गलती की इतनी बड़ी सजा

इस बारे में कहना कुछ नहीं क्योंकि हम मानते हैं कि गलती हमारी है. गलती ये कि दो लोगों के बीच में कभी नहीं आना चाहिए भले ही सबकी आपस में मित्रता है. गलती ये कि कभी भी संबंधों को बचाए रखने का प्रयास नहीं करना चाहिए भले ही सम्बन्ध आपस में ही क्यों न बिखरते हों. गलती ये भी कि कभी ये नहीं समझना चाहिए कि जो आपके करीब है वो आपकी बात को महत्त्व देगा. खुद को हमेशा सबसे अलग हाशिये पर समझना चाहिए और अपने आपको बचाने की कोशिश करनी चाहिए. फ़िलहाल तो सबक मिला है, इस घटना
से. आगे अपने स्वभाव को देखते हैं कि नियंत्रण में आता है या नहीं.

जो पीर को समझा नहीं .....

भूप हो या रंक हो
महशर में जाना रीत है ,
जंजीर में बंधा गया जो ,
जंजीर को समझा नहीं ।

शिवाजी महाराज के राष्ट्रकवि - भूषण

शिवाजी   ने   दुष्टों    का   नाश  करके  हिन्दू  राज्य   की  स्थापना  की  थी  ,
यह   बात  भूषण    ने   इन  शब्दों में   वर्णित    की  है
वेद राखे विदित पुरान परसिध्द राखे
राम नाम राख्यो अति रसना सुघर में
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की
कांधे में जनेऊ राखो माला राखी गर में  .
मीड़  राखे   मुग़ल  मरोड़  राखे  बादशाह
पीस  राखे  वैरी  वरदान  राखो  कर  में
राजन  की  हद्द राखी  तेग  बल  शिवराज
देव  राखे देवल स्वधर्म  राखो  घर   में



धन्यवाद।











5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति..
    आभार...
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंंदर शानदार भूमिका और बहुत अच्छी रचनाएँ है।
    सुंदर प्रस्तुति कुलदीप जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दप प्रस्तुतीकरण, आयोजकों को अनेकानेक शुभकामनाएँ...
    -आनन्द विश्वास

    जवाब देंहटाएं

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