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रविवार, 5 जुलाई 2020

1814..क्या हमारा नहीं रहा सावन

सादर नमस्कार
कल से सावन शुरु..
आएगा मुंह छुपाकर और
शायद जाएगा भी उसा तरह...


भाई कुलदीप एक वेबनार में फसें हैं
अभी समाचार मिला कि
वेबनार लम्बा खिचेगा

हमारी पसंदीदा रचनाएँ देखिए

एक मुद्दत के बाद
आईने की रेत हटा 
खुद के जैसा
खुद की नजर से
तुमको देखा


कभी कभी हम एक दूसरे को 
केवल शब्द दे पाते हैं अहसास नहीं। 
और बिना अहसासों वाला 
वह वार्तालाप शीत से ठिठुरता 
एक खामोश दिन सा होता है। 
इस जीवन में कितना कुछ है 
कहने को, सुनने को। 
लेकिन कौन किसकी सुने? 
कौन किसे सुनाए। 


कुछ लम्हें तो  चाहिए
तुम्हारे  दीदार के लिए
तुम्हें परखने के लिए
वह भी ऐसे कि उनमें
किसी का दखल न हो |
मुझे पसंद नहीं है


कदरें ज़िंदगानी की अपने हाथ मलती हैं 
शह् र में फसादों की जब हवायें चलती हैं

 आग जब भड़कती है दिल मेंशरपसंदी की 
बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं

ज़ह् नियत है बारुदी और सोच है आतिश
फ्रिक है नई नस्लें आज कैसे पलती हैं


Squirrel, Young, Young Animal, Mammal
सूखी डालियों पर 
इधर से उधर 
भागती रहती है गिलहरी,
गुदगुदी होती है पेड़ को,
पत्ता-पत्ता हिलता है उसका.
आज बस
कल फिर हम मिलेंगे
सादर


5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर सूत्रों से सजा सुन्दर संकलन । मेरी रचना को साझा करने हेतु सादर आभार यशोदा जी ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सस्नेहाशीष शुभकामनाओं के संग छोटी बहना
    इस साल किसी खास मौसम का इंतज़ार कहाँ..

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर हलचल. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं

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