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रविवार, 14 जून 2020

1794..हमें पसंद नहीं आते सआदत हसन और गाई द मोंपासा


आज विश्व रक्तदाता दिवस है

विश्व रक्तदान दिवस हर वर्ष 14 जून को मनाया जाता है विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस दिन को रक्तदान दिवस के रूप में घोषित किया गया है। वर्ष 2004 में स्थापित इस कार्यक्रम का उद्देश्य सुरक्षित रक्त रक्त उत्पादों की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना और रक्तदाताओं के सुरक्षित जीवन रक्षक रक्त के दान करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करते हुए आभार व्यक्त करना है।
.......
आँधी और तूफान,वृक्षों का जड़ों से,उखड़ जाना,आम बात है
हिमांचल प्रदेश में सूचना भी मिली ..और समाचार में भी बताया गया


आज हमारी पसंद देखिए....
..
सबसे पहले सआदत हसन मंटो


बू ......सआदत हसन मंटो

बरसात के यही दिन थे। खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे। सागवान के इस स्प्रिंगदार पलंग पर जो अब खिड़की के पास से थोड़ा इधर सरका दिया गया था एक घाटन लौंडिया रणधीर के साथ चिपटी हुई थी। 
खिड़की के पास बाहर पीपल के नहाए हुए पत्ते रात के दूधिया अंधेरे में झूमरों की तरह थरथरा रहे थे और शाम के वक़्त जब दिन भर एक अंग्रेज़ी अख़बार की सारी ख़बरें और इश्तिहार पढ़ने के बाद कुछ सुनाने के लिए वो बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को जो साथ वाले रस्सियों के कारख़ाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिए इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस खांस कर अपनी तरफ़ मुतवज्जा कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था। 

बदलते रंग ..मुकेश सिन्हा

मृत्यु कभी कठिन नहीं 
होती होती है कठिनतम वो सोच 
कि कहीं मर गया तो ? 
इस 'तो' में समाहित है न, कितना दर्द। 
महसूस कर पाया पिछले सप्ताह। 


तोरण एक बनाना ...ऋता शेखर 'मधु' 
covid 19 Lockdown:Those of you who plan to burn Diya or candle on ...
जिनके दृग की ज्योति छिन गई
मन उनका रौशन कर देना।
रंगोली जिस द्वार मिटी है
रंगों की छिटकन भर देना।।

ख्वाबों के मोती चुन चुन कर, तोरण एक बनाना प्रियवर।
अँधियारी रातों का साथी, बनकर साथ निभाना प्रियवर।।


बढ़ती उम्र ...आशा सक्सेना

सुबह काम शाम काम
ज़रा भी नहीं आराम
अब होने लगी है थकान
जर्जर  हुआ शरीर।
पीछे छूटे खट्टे मीठे
अनुभवों के निशान
मस्तिष्क  की स्लेट पर  
पुरानी यादों के रूप में।

प्रेम और ॐ ...रोली अभिलाषा

कभी ग़ौर से देखा है
अपनी दायीं हथेली की तर्जनी को
कुछ नहीं करती सिवाय लिखने के,
चूमती रहती है कलम को
जब गढ़ रहे होते हो सुनहरे अक्षर
....मेरी आँखों के
तुम्हारे शब्द चूमने से भी पहले.
...
हमें पसंद नहीं आते सआदत हसन और
गाई द मोंपासा....पता नही क्यूँ
पसंद की जाती है उनकी कहानियाँ...
औरतों को बेपरदा करना
दोनों को बखूबी आता है
कभी पढ़िएगा खरीद कर
उनकी किताबें...
कल फिर मिलेंगे हम
सादर










10 टिप्‍पणियां:

  1. पसंद की जाती है उनकी कहानियाँ...
    @क्योंकि:-
    औरतों को बेपरदा करना
    दोनों को बखूबी आता है

    सस्नेहाशीष संग शुभकामनाएं छोटी बहना
    सराहनीय प्रस्तुतीकरण

    जवाब देंहटाएं
  2. हो सकता है, मेरा बौद्धिक पिछड़ापन हो या साहित्यिक समझ की मुझे कमी हो, मुझे मंटो की कहानियाँ कभी पसंद न आई। दैहिक अभीप्सा की अतृप्त नस्लों के अश्लील उछाह से वह शब्दों का शील हरण करते से प्रतीत होते हैं। हाँ, एक बात है, उनके पाठक सर्वकालिक और शाश्वत रहेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  3. विश्व रक्तदान या रक्तदाता दिवस को दिनचर्या तो नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार एक स्वस्थ इंसान छः महीने में ही रक्त दे सकता है। वैसे इसे रक्तदान की जगह मैं "रक्तसाझा" कहना पसंद करता हूँ .. हो सकता है गलत होऊं .. शायद ...
    साहित्य और सिनेमा को बुद्धिजीवी लोग समाज का आईना मानते आए हैं और इन दोनों का काम समाज को आईना दिखाना भी है, केवल स्वयं को महिमामंडित करना नहीं .. तो मंटो जी, मोंपासा जी या इस्मत आपा जी ने समाज की "दोहरी ज़िन्दगी" जीने वाले लोगों को बेशक़ बेहतर आईना दिखलाया है ताउम्र .. इसलिए उन्हें या उनकी कहानियों को पसंद किया जाता है .. शायद ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हाँ, आपकी बात का मैं समर्थन करता हूँ। हर रचनाकार अपने समाज का बिम्ब रखता है। यह तो मार्क्स (मेरे प्रिय चिंतकों में एक, लेकिन मैं मार्क्सवादी नहीं) का अमृत वचन है कि ब्यक्ति के विचारों और मूल्यों में वहीं समाज टपकता है जहाँ की वह नस्ली और परवरिश के तौर पर जीवन का खाद-पानी पाता है। जीव विज्ञानी भी कुछ ऐसा ही संकेत करता है।

      हटाएं
    2. आपकी बातों का भी मैं आदर करता हूँ , पर अपना पक्ष एक बार रख लूँ :-
      1) वैसे मंटो के संदर्भ में ये सिद्धान्त जितना फिट बैठता उतना ही प्रेमचन्द या किसी अन्य के लिए भी, सही है .. पर कभी-कभी "विलासिता" के तथाकथित "परवरिश के तौर पर जीवन का खाद-पानी" में "बुद्ध" और "मीरा" भी टपक कर इस सिद्धान्त को झुठला जाते हैं ..शायद... :) और विज्ञान के ही सिद्धान्त की, कि हर धातु ठोस होता है के अपवाद में "पारा" की तरह एक तरल मिसाल भी पेश करते हैं ...
      2) दूसरा पक्ष यह है कि "दामिनी" या "अर्द्धसत्य" (अगर आपने ये दोनों फ़िल्में देखी हों तो,बात कहने में आसानी होगी/होती) जैसी फ़िल्म की कहानी लिखने वाले या इसके निर्देशक या कलाकार की "परवरिश के तौर पर जीवन का खाद-पानी" वैसा नहीं मिला होता है, बल्कि ये उनकी नज़रिया होती है देखने की उसी समाज को, जिस समाज में "शोले" और "बाहुबली" जैसी हिट फ़िल्म बनाने की भी नज़रिया रखते हैं लोग, उन्हें भी वैसी कोई "परवरिश या जीवन का खाद-पानी" नहीं मिला होता है।
      मंटो के समकालीन भी और उसी "परवरिश के तौर जीवन का खाद-पानी" वाले उन से इतर भी लिख रहे थे।
      आज भी हैं ऐसी कई भिन्नताएँ,मसलन- किसी को वही फूल देवी के चरणों में अर्पण दिखता है, किसी को फूल का मृत अंश पत्थर पर चढ़ा दिखता है, जब कि दोनों का जन्म सनातनी हिन्दू परिवार में ही हुआ हो ... इसे आप क्या कहेंगे 🤔

      हटाएं
    3. बातें आपने सारी सही कही है। चूक बस एक जगह हुई कि आपने 'खाद-पानी' को नितांत संकुचित दायरे में ले लिया। खाद-पानी' का मतलब महज़ भात-दाल-तरकारी' नहीं। इसमें आंतरिक आवरण से पर्यावरण तक और आहार से संस्कार तक समाहित है। 'बुद्ध' और 'मीरा' के बचपन से उनके कैवल्य तक कि यात्रा को बारीकी से देखेंगे तो उस 'खाद-पानी' का सार का थोड़ा बहुत आभास मिलेगा। धातु, अधातु या लोहा-पारा भी अपनी बनावट का खाद पानी अपनी परमाण्विक संरचना और इलेक्ट्रान प्रोटोन की आंतरिक बुनावट और सजावट में पाते हैं। इसलिए खाद पानी समझने के लिए स्थूल से सूक्ष्म में उतरना होता है।

      हटाएं
  4. कुछेक कहानियां प्रेरक ज़रूर है पर
    अधिकतर सापेक्ष नहीं है
    मसलन चांवल के दो-चार दानें देखकर
    सारा चांवल पसा दिया जाता है
    मुद्दा बहस का नही..
    कतई पसंद नहीं होती तो यहां
    परोसती ही नहीं..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर अविस्मरनीय प्रस्तुति आदरणीय दीदी | उस पर प्रबुद्द्जनों का मनमोहक सार्थक विमर्श मानों मंच पर एक ताजगी लेकर आया है | पक्ष और विपक्ष के सशक्त तर्कों ने विमर्श को बहुत ही रोचकता के साथ आगे बढाया | मुझे खेद है ' मोंपासा.' जी के नाम से परिचित नहीं हूँ | हाँ मंटो साहब की मात्र कुछ कहानियां पढ़ी हैं मैंने | ये भी पता है कि उन्हें अपनी विवादस्पद रचनाओं के कारण कई बार अदालतों तक के चक्कर भी काटने पड़े | आज के संकलन में शामिल कहानी '' बू '' की कहें तो मनोवैज्ञानिक स्तर पर इसकी विषय वस्तु कसी हुई है पर स्त्री देहों में उलझे व्यक्ति का चिंतन , किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए प्रेरक नहीं हो सकता है | विभिन्न स्त्री देहों से गुजर चुके नायक को अपनी शिक्षित और अत्यंत सुंदर पत्नी इसी लिए नहीं भा सकी क्योकि किसी अबोध , सरल , मटमैली घाटिन लडकी की देह की बू उसके भीतर बसी है | यदि इस कहानी को अनुभूति के स्तर पर लिखा गया होता तो शायद ये प्रेम की अनमोल थाती बन जाती पर कथा में छाई स्त्री देह और उनपर अनावश्यक चिंतन भले रसिकों के लिए बहुत बढिया सामग्री है पर आमजनों के लिए ये आज भी निषेध है | ये एक वर्ग आंशिक सच हो सकता है | पर कई स्त्री देहों से सरोकार रखने वाला नायक किसी का ही आदर्श नहीं बन सकता | लगता है बंटवारे की विभीषिका और समाज के नंगे सच को उघाड़ने की कोशिश में उनकी कहानियाँ कुछ ज्यादा ही पारदर्शी हो गयीं और इसी लिए वे बदनाम हुए | हालाँकि हर दौर में उनको पढने वाले और सराहने वालों की कमी नहीं रही और ना रहेगी , क्योंकि विवादजनित शौहरत चिरंजीवी होती है | | उनकी एक मार्मिक कहानी लाइसेंस का भी जिक्र करना चाहूंगी जिसमें एक युवा विधवा लड़की को तांगा चलाने का लाइसेंस नहीं मिल पाता , पर जिस्म बेचने का लाइसेंस सरलता से प्राप्त हो जाता है | ये उनकी सशक्त कहानी है | और पसंद - नापसंद तय करने के लिए हर हाल में मंटो को पढ़ना जरूरी होगा , जिसकी सलाह आपने भी दी है | सुंदर यादगार अंक के लिए आपको आभार और विमर्श के सहभागियों को साधुवाद जिनके माध्यम से मंटो जी के विषय में बहुत कुछ जाना | सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति दीदीजी।सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं

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