कुछ अच्छा पढ़ने को भी मिल जाता है
ऐसे ही एक नया ब्लॉग मिला विभा बहन का..
पढ़िए आप भी उनकी एक रचना उनके ही ब्लॉग में
मेरी पहचान बाकी है...... श्वेता सिन्हा
पिघलता दिल नहीं अब तो पत्थर हो गया सीना
इंसानियत मर रही है नाम का इंसान बाकी है
कही पर ख्वाब बिकते है कही ज़ज़्बात के सौदे
तो बोलो क्या पसंद तुमको बहुत सामान बाकी है
एक लड़की है अनजानी सी....रेवा टिबड़ेवाल
एक लड़की है
अनजानी सी ,
थोड़ी पगली
थोड़ी दीवानी सी ,
जीवन उसकी है
एक कहानी सी ,
हिंदी की संवैधानिक स्थिति....बृजेन्द्र कुमार अग्निहोत्री
"हिंदी थोपी जा रही है….."
या
"हिंदी लादी जा रही है…"
अथवा
"हिंदी औपनिवेशिक भाषा है…"
यहाँ विचारणीय यह है कि प्रजातंत्र में थोपने-लादने कि स्थिति क्या हो सकती है…? हमें स्वयं इस तथ्य की तह तक पहुँचकर यह विचार करना चाहिए कि जो भाषा संपूर्ण भारत में एकता स्थापित करने के लिए "राजभाषा" घोषित की गयी है। जो भाषा देश की भावात्मक एकता को मज़बूती से बाँधे हुए है; उसके लिए "लादने" और "थोपने" जैसे शब्दों का प्रयोग कितना उचित है?
हजार का आधा .... डॉ. सुशील जोशी
बहुत से
लोग
कुछ भी
नहीं कहते
ना ही उनका
लिखा हुआ
कहीं नजर
में आता है
और..
एक तू है
जब भी
भीड़ के
सामने
जाता है...
बहुत कुछ
लिखा हुआ
तेरे चेहरे
माथे और
आँखों में
साफ नजर
आ जाता है
इज़ाज़त दें यशोदा को
फिर मिलते हैं
हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंनगीने चुन ले आती हैं
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर। संकलन ,आभार
जवाब देंहटाएंबहुत खुब
जवाब देंहटाएंइस अंक में एक ओर जहाँ मझोले /लघु आकार की मन को तरोताज़ा करती काव्य प्रस्तुतियाँ हैं वहीँ हिंदी की संवैधानिक स्थिति पर एक सारगर्भित ,विचारणीय आलेख भी है। सुन्दर , विविधतापूर्ण लिंक संयोजन के लिए बहन यशोदा जी को बधाई।
जवाब देंहटाएं"और ये हो गयी पाँच सौंवी बकवास"
जवाब देंहटाएंइस अंक को विशिष्टता का अलंकरण दे रही है।
उम्दा संकलन...
जवाब देंहटाएंअति सुंदर....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुति। आभार यशोदा जी 'उलूक' की बकवास पर नजरे इनायत के लिये।
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