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शनिवार, 9 जनवरी 2021

2003... लौ

पोस्ट संग हाजिर हूँ उपस्थिति स्वीकार करें.. मिटे नहीं उम्मीद की...

लौ

 “अभी तो चलना है बहुत दूर मेरे मित्र

    बहुत दूर

    इन अनजानी अनपहचानी सड़कों पर

    इस भरी पूरी चाँदनी में

    तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ

    चुप-चाप”

देदीप्यमान लौ हूँ

आंगन की रौनक हूँ

फुलवारी की महक हूँ,

किलकारी हूँ, 

मैं व्यक्ति हूँ, सृष्टि हूँ 

अपनों पर करती नेह वृष्टि हूँ 

मैं अन्तर्दृष्टि ..

देखो और सीखो

तन सजल हुआ घटा का, धरती से मिल कर देखो ,

सरिता भी हुई है खारी ,जलधि से मिल कर देखो,

रजनी सिमट गई है, ऊषा से मिल कर देखो,

पतंगे भी जल रहे हैं, दीपक की लौ में देखो,

लौ का स्पंदन

बाँहों में ले प्यार से बोलीं

समझ संगिनी विरह-अगन में।

पूर्णमास भी होगा सखि रे,

पाओगी राकेश गगन में।

विक्षुब्ध ह्रदय

सद्ग्रन्थ कुंठित हैं कुकर्म भावो से

वेदना उनकी वर्णित कैसे करू |

जगत तिमिर ने ढक लिया

अंध दृष्टि को रोशन कैसे करू|

पाप हो उठा प्रज्ज्वलित

धधकती धरती की व्यथा कैसे कहूँ |

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पुन: भेंट होगी...

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