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शनिवार, 25 जुलाई 2020

1835... झरना

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष
स्व पर निर्भर करता है,हम किसे क्या देना चाहते हैं
कोई जरूरी नहीं कि जिसे हम जो दे रहे हैं उनसे ही
वापसी में वो पा जाएँ...
सूर्य-चाँद जो धरा को देते हैं क्या धरा वो लौटा पाती है...!
पहाड़ों से जो मिलता...
झरना

  इस मुल्क में मनोरोगियों को अक्सर पागलपन का कलंक झेलना पड़ता है
तो मनोवेद का मूल उददेश्य इस कलंक से लड़ना भी है। इसके लिए हमलोग
हर अंक में निष्कलंक के तहत अपने अपने क्षेत्र में दुनिया की ऐसी नामी हस्तियों पर
फोकस करते हैं जो एक समय मनोरोग के शिकार रहे पर उससे जूझ कर,
निकलकर उनलोगों ने अपने क्षेत्र में, दुनिया में, अपने काम और नाम का सिक्का जमाया है।

झरना

दिखी औचक बदलती हुई पाला
उछल कर कूद पड़ी नीचे की ओर
दौड़ा बचाने को पीछे से आता पानी का रेला
पर वह भागी जाती थी कुलाँचे भरती हिरनी की तरह
सारे अवरोधों को रौंदती-कुचलती।

झरना

बादल से हाथ मिलाते हुए बोला- 
ठीक है, पर मेरी एक शर्त है। तुम्हें मेरे साथ ही रहना होगा।
मुझसे रोज बातें करनी होगी। कहीं छिप मत जाना।
बोलो है मंजूर? - हाँ, मुझे मंजूर है।
मुझे तुम और तुम्हारी दोस्ती दोनों पसंद है

झरना

हम शोर समझते है जिसको
वो तो है पत्थर  की ठोकर।
चुपचाप यूँ ही बहते बहते
सबकी ठोकर सहते  सहते।
बह सकते गर बनकर शीतल

झरना

नि‍रंतर बहती रहूं
कलकल बहती नदी सी
क्‍यों रोकते हो मुझे
क्‍यों चाहते हो
इन नेत्रों में प्रेम रंग देखना
><><><
भेंट होगी...
><><><

हम-क़दम का अगला विषय है-
'बरसात'
उदाहरणस्वरूप कविवर अज्ञेय जी की रचना-

"पानी बरसा!

ओ पिया, पानी बरसा!

घास हरी हुलसानी
मानिक के झूमर-सी झूमी मधु-मालती
झर पड़े जीते पीत अमलतास
चातकी की वेदना बिरानी।
बादलों का हाशिया है आसपास-
बीच लिखी पाँत काली बिजली की-
कूँजों की डार, कि असाढ़ की निशानी!
ओ पिया, पानी!
मेरा जिया हरसा।

खडख़ड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।
देखने को आँखें घेरने को बाँहें।
पुरानी कहानी?
ओठ को ओठ, वक्ष को वक्ष-
ओ पिया, पानी!
मेरा हिया तरसा।
ओ पिया, पानी बरसा!"

-अज्ञेय 

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