एक पुरानी कहावत है
"किताबें मानव की सच्ची मित्र है।"
पर शायद आज के दौर में ऐसे बहुमूल्य वाक्य मात्र ऐतिहासिक उक्ति बनकर रह गये हैं ऐसा प्रतीत होने लगा है। डिजिटल क्रांति के इस युग में किताब स्कूल- कॉलेज की पढ़ाई से संबंधित ज्ञान में सिमटकर रह गया है । पाठ्यक्रम में अक्सर बदलाव होते रहते हैं ,
बच्चों का ज्ञान तो वैसे भी कोर्स तक सिमटकर रह
गया है। नैतिक शिक्षा,पौराणिक कथा,व्यवहारिक
ज्ञान तो बहुत दूर की बात है बच्चे तो एक ही
विषय की अलग -अलग पुस्तक भी कहाँ पढ़ना
चाहते हैं? बस रैंक आ जाये उतना भर ही। सोच रही हूँ अगर बस्ते का बोझ हल्का करने के नाम पर विदेशी विद्यालयोंं के तर्ज़ पर छात्रों के हाथ में टैब पकड़ा दिया जाये तो पुस्तकों के वजूद का क्या होगा?
★
अब कुछ बात कर ले दिसंबर की
गुनगुनी किरणों का
बिछाकर जाल
उतार कुहरीले रजत
धुँध के पाश
चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर
दिसंबर मुस्कुराया
★
चलिए आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
★★★★
आदरणीय ज्योति खरे जी
जब खनकती चूड़ियों में
समाया रहता था इंद्रधनुष
मौन हो जाती थी पायल
और तुम
अपनी हथेली में
मेरी हथेली को रख
बोने लगती थी
प्रेम के बीज
★★★★★★
आदरणीय कैलाश शर्मा जी
काश होता जीवन
कैक्टस पौधे जैसा,अप्रभावित
धूप पानी स्नेह से,खिलता जिसका फूल
तप्त मरुथल में
दूर स्वार्थी नज़रों से|
★★★★★
आदरणीया रेणु जी
लौटी हूँ चिरप्रवास से -
रिक्तियों के नभ से मैं
आकंठ हूँ अनुरागरत -
विरक्त हूँ इस जग से मैं
स्नेह पाश में बंधी -
ना बंधन ये तोड़ जाना तुम
★★★★★
आदरणीया कुसुम जी
जिन डालियों पर
सजा करते थे झूले
कलरव था पंछियों का
वहाँ अब सन्नाटा है
झूल रहे हैं फंदे निर्लिप्त
कहलाते जो अन्न दाता
भूमि पुत्र भूमि को छोड़
शून्य के संग कर रहे समागम।
★★★★★★
आदरणीय प्रकाश शाह जी
व्यय मत कर भय, काल फिर भर जाएगा
संशय मन का साया है, मृत देह संग जाएगा
असत्य का पूरक भय, जिह्वा का लड़खड़ाना लय
संकेत सूचक इशारा है, मन का घबराना तय
★★★★★
आदरणीया अनीता"अनु"
की एक रचना
पर मेरे जीने की वजह तुम क्यों नहीं..??
एक मैं ही क्यों वजह बनती रही
तुम्हारे हर दी हुई बात की
पर कमाल है दुनिया की नज़रों में तुम क्यों नहीं..?
तुम मेरे तने को काटते रहे
और मैं अधमरी पेड़ बन
चुपचाप ज़ख़्मों को सीती रही।
★★★★★
और चलते-चलते आदरणीय
हर्षवर्धन जोग जी से सुनिये
ओर्वाकल गार्डेन, आंध्रा
बहरहाल राजमार्ग के एक तरफ आन्ध्रा टूरिज्म - APTDC, द्वारा एक हजार एकड़ में रॉक गार्डन बनाया गया है. यहाँ एक रेस्तरां, दस कॉटेज का होटल और बच्चों के झूले वगैरा लगा दिए गए हैं. दर्शकों के लिए चट्टानों के बीच से तीन किमी लम्बा घुमावदार रास्ता भी बना दिया गया है. चट्टानों के बीच पूल भी है जहां बोटिंग की जा सकती है. कुछ और काम अभी जारी हैं. अगर आप जाएं तो दोपहर की तीखी धूप से बचें. उगते और ढलते सूरज में नज़ारा बड़ा सुंदर लगता है.
★
आज यह अंक आपको कैसा लगा?
कृपया अपनी बहुमूल्य
प्रतिक्रिया अवश्य दें।
हमक़दम के विषय के लिए
कल का अंक पढ़ना न भूलें,
कल आ रहीं हैंं विभा दी
अपनी विशेष प्रस्तुति के साथ
★
भोर धुंध में
लपेटकर फटी चादर
ठंड़ी हवा के
कंटीले झोंके से लड़कर
थरथराये पैरों को
पैडल पर जमाता
मंज़िल तक पहुँचाते
पेट की आग बुझाने को लाचार
पथराई आँखों में
जमती सर्दियाँ देखकर
सोचती हूँ मन ही मन
दिसंबर तुम जल्दी बीत जाया करो
शुभ प्रभात सखी
जवाब देंहटाएंस्तरीय रचनाओं क चुनाव..
साधूवाद...
रही बात दिसंबर की..
वो आएगा भी आखिरी में
और...
जाएगा भी आखिरी में...
आभार...
सादर...
सस्नेहाशीष संग शुभकामनाएं बहना
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर प्रस्तुतिकरण
शीत को जमा दिया
जवाब देंहटाएंपेट को तपा दिया।
कट कटाकर दांतो को
हड्डियों को कंपा दिया।
अब और न ठहर तू
क्या रोजी रोटी खाओगे।
दिसंबर! तुम कब जाओगे!.....
बहुत सुंदर संकलन। बधाई और आभार।
'ओर्वाकल' को शामिल करने के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन हलचल प्रस्तुति 👌
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर संकलन... रोचक हलचल की प्रस्तुति के लिए आभार....
जवाब देंहटाएंइस पृष्ठ पर मेरी रचना को स्थान दिया आपने..इस सम्मान के लिए बहुत-बहुत आभार, श्वेता दी।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ बेहतरीन है।
वाहह..श्वेता जी बहुत सुंदर लिंकों के साथ विचारणीय प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
सार्थक परिश्रम
धन्यवाद
वाह सुन्दर अंक।
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुतिकरण उम्दा लिंक संकलन
जवाब देंहटाएंप्रिय श्वेता -- आपके सुदक्ष लेखन का प्रतीक दिसम्बर माह को उद्बोधन बहुत लाजवाब है | सचमुच सर्दियां अमीरों के लिए शानोशौकत की प्रतीक हैं तो फटेहाल और रोज के रोज की कमाई से आजीविका पर निर्भर लोगों के लिए एक यंत्रणा | इसका बीतना ही श्रेयस्कर |पुस्तकों का अलोप हो जाना एक अविश्वसनीय सी बात लगती है पर तेजी से बदलते भौतिकवाद में ये संभव भी है | नई पीढ़ी का साहित्य से विमुख हो जाना और पुस्तकों से ज्यादा नये नये गैजटों पर निर्भर हो जाना इस भय की पूर्ति की पुष्टि करता है | जब हम अनन्य पुस्तक प्रेमी भी धीरे धीरे कंप्यूटर , मोबाइल इत्यादि पर निर्भर हो रहे हैं तो आम लोगों का क्या कहना | बाकि तो भविष्य के गर्भ में है | सुंदर सरस रचनाओं के बीच मेरी रचना को भी स्थान मिला ,जिसके लिए हार्दिक आभारी हूँ | सभी रचनाकारों की रचनाएँ अपने आप में विशेष हैं सभी को हार्दिक शुभकामनायें | और आपको सुंदर अंक के लिए हार्दिक आभार के साथ मेरा प्यार |
जवाब देंहटाएंश्वेता जी दिसंबर को जिंदा कर दिया आज के लिंक संयोजन से.
जवाब देंहटाएंकिताबों के सच और पढ़ने की तरफ से भटकते मन को वापस लाने के सार्थक संकेत, बेहतरीन भूमिका रची हक़ी आपने.
सुंदर लिंक संयोजन
सभी रचनाकारों को बधाई
मुझे सम्मलित करने का आभार
सादर
जाड़े को मर्मस्पर्शी मनुहार जल्दी बीत जाया करो,रचना में निहित आभाव ग्रस्त लोगों का दर्द गहराई से उभारा है आपने श्वेता। भुमिका में किताबों का दर्द भी सचमुच विचारणीय है दमदार चिंतन देती भुमिका से उपसंहार तक बहुत आकर्षक अंक सभी रचनाकारों को बधाई सभी रचनाएँ मनभावन ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को सामिल करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया ।
सुन्दर और बेहतरीन भूमिका हे हिंदी में
जवाब देंहटाएं