सब हाँ-में-हाँ मिलाएं
बस शहंशाह तो हमीं ठहरे
तड़प-तड़प कर जल रहे ,
वादियों से सिला रुस्तम कोहरा
धीमी-धीमी, धुंधली-धुंधली
ठहरा हुआ, सिमटा-सिमटा ये समा
रुके क्यों, क्यों थमे
थामे हाथों में हाथ, उगे
मलमल कच्चे रंगों की
यूं लग रहा है जैसे जहन्नम है ज़िन्दगी
बरहम हैं आप मुझसे तो बरहम है ज़िन्दगी
इस ज़िन्दगी का क़र्ज़ चुकाने के वास्ते
सौ साल भी जियें तो बहुत कम है ज़िन्दगी
लिक्खा हुआ है एक फटी ओढ़नी पे ये
हारे हुए कबीले का परचम है ज़िन्दगी
कच्ची माटी
दर्द की ‘धुप’ कहाँ अनुभव की है ?
अभी कहाँ इन ,’तृष्णाओंने’,
सोच तुम्हारी, परखी है।
अभी बरसती तुम पर ममता ,
कहाँ सही तूने गर्मी !
नही तपे तुम, अभी आग में
कुंदन होना बाकि है।
कच्ची कविता
अखबार पर दाल चावल खाने वाला भी गुनगुनाता है अपने दर्द को,
और किसी बार से झूमकर निकलता शराबी भी स्वर देता है अपने स्वप्न को।
उतारता नही अपना यह दर्द और अपना स्वप्न वह किसी कागज पर
क्युंकि डरता है कि उसके पास बस दर्द और स्वप्न ही हैं
पर जरूरी है अब कि कविता को
जवाब देंहटाएंपक्के स्याही के बंधन से मुक्त करो,
और अपने दर्द और स्वप्न को
धुंधली स्याही से ही व्यक्त करो।
अनमोल शब्दों से सजा संकलन।
प्रणाम।
शुभ प्रभात दीदी
जवाब देंहटाएंसादर नमन
दर्द की ‘धुप’ कहाँ अनुभव की है ?
अभी कहाँ इन ,’तृष्णाओंने’,
सोच तुम्हारी, परखी है।
अभी बरसती तुम पर ममता ,
कहाँ सही तूने गर्मी !
नही तपे तुम, अभी आग में
कुंदन होना बाकि है।
सादर..
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाएँ
लाजवाब
बहुत सुंदर रचनाएँ, प्यारी विभा दी के खास अंदाज की प्रस्तुति मुझे बहुत भाती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स
जवाब देंहटाएंशानदार लिंक शानदा प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई।