।। भोर वंदन ।।
"निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हँसे "
रघुवीर सहाय
सहज भाव से सामाजिक जीवन की संपूर्णता को इंगित करतीं पंक्तियों के साथ चलिये अब नज़र डालें चुनिंदा लिंकों पर..
....ज्वलंत प्रश्न — खामोशियों को चीरती आवाज़"
बोलो सरकारें क्यों सोई हैं ?
जनता की पीड़ा समझा कब कोई है?
हर कोना जलता है चुपचाप,
सच को सुनता भी अब कहा कोई है।
शहरों में सांसें बिकती हैं,..
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शांति का प्रवाह शीतलता की मंद बयार मिलती है
जो आज के ए०सी० कूलर पंखों से कई बढ़कर होती है
भावनाओं से भरा वह वृक्ष सजीव
ममत्व सुकोमल गुण से संपन्न
बिना किसी भेदभाव के अपना र्स्वस्व देता..
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उठा के हाथ में कब से मशाल बैठा हूँ ...
किसी के इश्क़ में यूँ सालों-साल बैठा हूँ.
में कब से दिल में छुपा के मलाल बैठा हूँ.
नहीं है कल का भरोसा किसी का पर फिर भी,
ज़रूरतों का सभी ले के माल बैठा हूँ...
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ईश्वर ने भगवद्गीता बचा ली
सच कितना बड़ा चमत्कार ईश्वर का!
ईश्वर ने भगवद्गीता बचायी
मगर इंसानों को
ऊँचाई पर ले जाकर
पहले तो नीचे पटका
फिर आग के हवाले कर दिया
यह कोई कविता नहीं पीड़ा है..
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।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति '..✍️
सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बहुत सुंदर अंक, आज के इस बेहतरीन अंक में मेरी रचना को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार | अन्य सभी रचनाकारों की रचना भी बहुत सुंदर है, सबको बहुत बहुत बधाई 🙏
जवाब देंहटाएंआज के इस विचारणीय अंक में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए हृदय से धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबुत सुन्दर संयोजन ... आभार मुझे भी शामिल करने के लिए ...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अंक
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