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रविवार, 8 जून 2025

4413...जब बुझ जाएँगे आशा के सब दीपक, क्रान्ति की सब मशालें...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया आँचल पांडेय जी की रचना से।

सादर अभिवादन।

रविवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

808.चश्मा

मैं बड़ा तो हो गया,

मेरी आँखों पर भी लग गया

पावर वाला चश्मा,

पर मैं कभी नहीं देख पाया

चीज़ों को उस तरह,

जैसे पिता देखते थे।

*****

कविता | अर्द्धरात्रि का प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का चंद्रमा

किसी फकीर की तरह

चलता चला जाता है

अपनी ही राह पर

अपनी ही धुन में

चाहे उसमें कोई

कलंक देखे या

देखे चांदी-सी चमक

*****

अँधेरे के साम्राज्य में

जब बुझ जाएँगे

आशा के सब दीपक,

क्रान्ति की सब मशालें

और शहीद हो जाएँगे

सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते

तब शायद इन्हीं तारों में से

फूट पड़ें नए भोर की किरणें

*****

मैं धरती हूँ.....

तू खो गया है शहरों की चकाचौंध में,

पर भूल गया मैं ही तेरी साँसों की आधार हूँ।

वो बारिशें जो कभी तुम्हें कभी झूमने को करती थीं बेबस,

आज मैं खुद उन बूँदों को तरसती हताश और लाचार हूं।

*****

संस्कार की महक

इस व्याख्यान से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि संस्कार के बीज हमारे मन में बहुत गहराई तक जगह बनाये होते हैं जो लाख कोशिशों के बावजूद मिटाये नहीं जा सकते. जैसे कि आप एक ऐसा जार लीजिये जिसमे आप चीनी रखते हैं, अब आप उस जार को खाली कीजिये और ध्यान दीजिये कि सारी चीनी जार में से निकाल देने के बाद भी चीनी जार में अपने निशान छोड़ जाती है बिल्कुल उसी तरह जैसे एक संस्कारी व्यक्तित्व अपने आस पास, अपने समाज, अपने देश में अपने कार्यों से अपने संस्कारों की महक छोड़ जाता है.

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 


4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर लिंक संजोये है आपने रविंद्र जी, एक एक कर सभी का अवलोकन करती हूँ, मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद 🙏🙏
    कानूनी ज्ञान ब्लॉग पर साइबर क्राइम से जुडी पोस्ट का अवलोकन करें
    http://shalinikaushikadvocate.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. आज के इस बेहतरीन अंक में मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद 🙏. बांकी सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर लिंक. मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं

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