शीर्षक पंक्ति: आदरणीया आँचल पांडेय जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
रविवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-
मैं बड़ा तो हो गया,
मेरी आँखों पर भी लग गया
पावर वाला चश्मा,
पर मैं कभी नहीं देख पाया
चीज़ों को उस तरह,
जैसे पिता देखते थे।
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कविता | अर्द्धरात्रि का प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अर्द्ध रात्रि का चंद्रमा
किसी फकीर की तरह
चलता चला जाता है
अपनी ही राह पर
अपनी ही धुन में
चाहे उसमें कोई
कलंक देखे या
देखे चांदी-सी चमक
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सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते
तू खो गया है — शहरों की चकाचौंध में,
पर भूल गया — मैं ही तेरी साँसों की आधार
हूँ।
वो बारिशें जो कभी तुम्हें कभी झूमने को
करती थीं बेबस,
आज मैं खुद उन बूँदों को तरसती हताश और
लाचार हूं।
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बेहतरीन अंक
जवाब देंहटाएंआभार
वंदन
बहुत ही सुंदर लिंक संजोये है आपने रविंद्र जी, एक एक कर सभी का अवलोकन करती हूँ, मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद 🙏🙏
जवाब देंहटाएंकानूनी ज्ञान ब्लॉग पर साइबर क्राइम से जुडी पोस्ट का अवलोकन करें
http://shalinikaushikadvocate.blogspot.com
आज के इस बेहतरीन अंक में मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद 🙏. बांकी सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंसुंदर लिंक. मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए आभार।
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