कुछ सोच ...
आज पितृ-दिवस है
जला कर तन को तूने,
दूर किया मेरे मन का अँधेरा
तेरी साधना के प्रतिफल,
होता नित मेरा नया सवेरा।
तू ईश्वर की प्रतिमूर्ति पापा,
या तुझमें असीम है शक्ति
तुम बिन और नहीं है कोई पापा,
जिसपे मुझे हो आसक्ति।
पिता किसी बच्चे के जीवन में
सूरज की तरह होते हैं जो भोर की
कोमल किरणों की तरह
स्नेह से माथा चूमकर हाथ पकड़कर
जीवन के कोलाहल से परिचित करवाते हैं।
दोपहर की तीक्ष्ण धूप की तरह हर
परिस्थिति में कर्म पथ पर
तपकर कठोर बनकर जुझारू और
संघर्षरत रहना सिखाते हैं और शाम होते ही
दिन-भर इकट्ठा किये गये सुख की शीतल छाँव में
छोड़कर पथप्रदर्शक सितारा बन जाते हैं।
समुंदर की तरह विशाल हृदय पिता जीवनभर
सुख-दुःख की लहरों को बाँधते हैं लय में,
रेत बनी अपनी आकांक्षाओं को छूकर
बार-बार लौट जाते हैं अपनी सीमाओं में,
सागर-सा मुझको लगे, पिता आपका प्यार।
ऊपर बेशक खार सा, अंदर रतन हजार॥
देखें कुछ रचनाएं
आदत से अपनी
अच्छी बातों में भी
तुझे छेद हजारों
नजर आ जायेंगे
ये भी नहीं
आज के दिन ही
कुछ अच्छा
सोच लेता
डर भी नहीं रहा कि
पिताजी पितृ दिवस
के दिन ही
नाराज हो जायेंगे।
पिता पहचान हैं,
पिता लुकमान हैं,
पिता के बिना हलकान हैं.
पिता हर्ष हैं,
विचार-विमर्श हैं,
भटकने लगूं तो परामर्श हैं.”
अब तो उनका रोज का क्रम बन गया ,मुझे भी आनंद आनें लगा ,अब वो ज्यादा काँव-काँव नहीं करते बस दो तीन बार आवाज लगाते है और बिस्कुट पाकर उड़ जाते हैं ।
एक दिन सुबह-सुबह देखा तो पारले-जी बिस्कुट खत्म हो गया ,मैंनें उसे गुड-डे बिस्कुट दिया ,पर कौवे जी को पसंद नहीं आया बिना लिए ही उड गया बेचारा ,तब समझ आया कि खानें में इनकी भी पसंद-ना -पसंद होती है ।
मेरी गिरती हुई गरिमा को कई संगठनों और व्यक्तियों ने समझा और अपने आयोजनों में मंच बनाना ही बंद कर दिया, बस सामने एक माइक रख देते हैं, वक्ता बारी बारी से आते हैं और अपना उद्बोधन देकर सबके साथ रखी अपनी सीट पर वापस बैठ जाते हैं। मंच को लेकर आज जो समस्या आ रही है उसे सदियों पहले शेखावाटी के शासकों ने समझा और मंच बनाना ही बंद कर दिया, वे सब एक जाजम पर बैठते और बिना छोटे बड़े, ताजिमी, गैर ताजिमी का भेद किये अपने स्वत्वाधिकारों की चर्चा करते, जो पहले आता वो आगे बैठता, जो बाद में आता वो पीछे बैठता भले ही कितना ही प्रभावशाली क्यों ना हों| मतलब कोई छोटा बड़ा नहीं, कोई विशेष नहीं।
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देखा और समझा
पिता को कोई समझ नहीं पाता
पसीने तर-बतर पिता को
कोई भला कैसे समझे...
वो तो फरमाइश पूरी करने
वाला पुतला है .. उसकी भावनाओं को
उसकी अर्धांगिनी भी नहीं समझ पाई
बस..
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आज बस
सादर वंदन
सागर-सा मुझको लगे, पिता आपका प्यार।
जवाब देंहटाएंऊपर बेशक खार सा, अंदर रतन हजार॥
उत्तम संग्रहणीय अंक
आभार
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपितृ दिवस की शुभकामनाएं
पितृ दिवस की शुभकामनाएं और आभार
जवाब देंहटाएंसुंदर अंक
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