।।प्रात वंदन।।
"रत्न प्रसविनी है वसुधाअब समझ सका हूँ
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे"
सुमित्रानंदन पंत (20 मई 1900- 28 दिसंबर1977)प्रकृति के सुकुमार कवि और हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक पंत जी की पुण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन🙏चलिए आज की प्रस्तुति में शामिल रचनाओं पर नजर डालते हैं..✍️
पागल है यह दुनिया सारी
जग है यह अजब निराला क्या मैं भी उस मे खो जाऊं?
पागल है यह दुनिया सारी क्या मैं भी पागल हो जाऊं?
पागल है कोई धन के पीछे, कोई पागल तन के पीछे।
कोशिश करें कोई पहाड़ चढ़न की,कोई पकड़ उसको खींचे।
दौड़ रहा है जग यह सारा क्या मैं भी शामिल हो जाऊं?
🌸🌸
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की योद्धा तवायफ़ों की अनकही कहानियाँ
अपनी हस्ती मिटाकर
मिल गयी मिट्टी में
वो मिट्टी भी
जो हँसती थी कभी
बोलती थी कभी ।
वो मिट्टी न होती
तो ये ताज न होता तेरे सर पे ।
नाम न पूछ
इतिहास में चिंगारियों के नाम नहीं लिखता कोई
कागज जल उठेंगे..
🌸🌸
शब्दों से ही परिचय मिलता
उसके पार न जाता कोई,
शब्दों की इक आड़ बना ली
कहाँ कभी मिल पाता कोई
🌸🌸
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
शब्दों से ही परिचय मिलता है
जवाब देंहटाएंशानदार अंक..
सादर..
शुक्रिया दी
हटाएंसुप्रभात !
जवाब देंहटाएंसराहनीय तथा पठनीय रचनाओं का चयन ।
बहुत शुभकामनाएं मम्मी जी ।
धन्यवाद
हटाएं☺️☺️
शानदार अंक,मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंलाजबाव संकलन
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