शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक में पाँच पसंदीदा रचनाओं के लिंक्स के साथ
हाज़िर हूँ।
आइए पढ़ते हैं आज की चयनित रचनाएँ-
रात भर गुज़रती हैं
रेलगाड़ियां मेरी बग़ल से,
उचटती रहती है मेरी नींद,
जिन्हें रुकना नहीं होता,
वे इतना क़रीब क्यों आते हैं?
बह गया आँख से पानी, रिस गए दिल के छाले
यूँ शिद्दत से छुपाए थे, मेरा ज़र्फ़ कुछ कम तो न था।
भूल जाते हैं जीना अक्सर जिंदगी हम
जीवन की आपाधापी में
रुकता नहीं वक्त जिंदगी की राहों में
छोटी सी जिंदगी के हर लम्हें को
खर्च करो दिल खोल कर जीवन में
चाहों से यह जग चलता है
पर टिका हुआ अचाह बल पर,
मंज़िल दोनों के पार खड़ी
कोई कोई ही पहुँचे घर!
जबसे अलकें गिराने लगी माथ पर
इठलाती बलखाती चलने लगी राह पर
लोग कहते बड़ी शोख़ है नज़ाकत मेरी
कटि नागन सी और भी मटकाने लगी मार्ग पर।
*****
फिर मिलेंगे।
व्वाहहहहहहह
जवाब देंहटाएंसुंदर अंक
आभार
सादर
सुप्रभात ! सराहनीय रचनाओं का सुंदर संकलन, आभार मन पाए विश्राम जहाँ को स्थान देने हेतु रवीन्द्र जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन ।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स चयन
वाह!बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन। इसके शीर्षक ने मुझे आकर्षित किया।
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