हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
तृतीय यह कि किसी सर्जक की सर्जना पर कोई पत्रिका या पुस्तक सम्पादित होती हो तो अक्सर यह देखा जाता है कि संस्मरण के बहाने लोग उसके व्यक्ति को उकेरने लगते हैं यानी उसका व्यक्तित्व कितना विवादित था, वह कितना प्रेम में पड़ा था आदि-आदि। मनुष्य का स्वभाव है विवादित चीजों को, प्रेम- कहानी को बड़े चाव से पढ़ता है और इस परिप्रेक्ष्य में वह उस रचनाकार के कृतित्व की मूल्यवत्ता को भूल जाता है। तात्पर्य यह कि आदमी अपने गुणों के कारण बड़ा होता है, विवादों और प्रेम-प्रसंगों के कारण नहीं।
मन घृणा से भर गया कि हमारे पूर्वजों ने धर्म को जिस मकसद से खड़ा किया, कुम्भ में तो दूर-दूर तक उसका नामोनिशान नहीं छोड़ा इन विचौलियों ने। यह एक धार्मिक व्यापार के रूप में शुरू हो गया। दूसरी ओर एक गाडी उन सामानों को ढोकर बाजार ले जा रही थी। इन सामानों को फिर कोई खरीदेगा शय्यादान के लिए। आखिर एक पंडित कितना सामान रखेगा अपने घर। इस बात को हर कोई जानता है, पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हमने तो दे दिया। अब पंडित की मर्जी। बेचें या घर रखें। उनसे कोई मतलब न था। किसी ने शय्या दान के लिए जमीन गिरवी राखी थी तो किसी ने लोन लिया था। किसी ने घर ही गिरवी रख दिया था। किसी ने बच्चे की पढाई रोक दी थी तो किसी ने किसान क्रेडिट कार्ड का पैसा ही लगा दिया था। इन सब संसारी सुविधाओं से आखिर मोक्ष का कौन जोड़। सबका उद्देश्य तो मोक्ष ही पाना है। उन्हें मोक्ष मिला कि नहीं, पर अम्मा हमसे वचन लेने पर आमादा थीं, वचन दो बिटिया, हमारे कल्पवास के समापन पर तुम यह सब करोगी। करोगी न? गाय दान देकर मुझे वैतरिणी पार कराओगि न?
भक्तिन को जब मैंने अपने कल्पवास संबंधी निश्चय की सूचना दी तब उसे विश्वास ही न हो सका। प्रतिदिन किस तरह पढ़ाने आऊँगी, कैसे लौटूंगी, ताँगेवाला क्या लेगा, मल्लाह क्या लेगा, मल्लाह कितना मांगेगा, आदि-आदि प्रश्नों की झड़ी लगाकर, उसने मेरी अदूरदर्शिता प्रमाणित करने का प्रयत्न किया।
मेरे संकल्प के विरुद्ध बोलना उसे और अधिक दृढ़ कर देना है, इसे भक्तिन जान चुकी है, पर जीभ पर उसका वश नहीं। इसी से अपने प्रश्नों की अजस्त्र वर्षा में भी मुझे अविचलित देखकर वह मुँह बिचकाकर कह उठी - 'कल्पवास की उमरि आई तब उहौ हुई जाई। का एकै दिन सब नेम-धरम समापत करे की परतिगया है?'
कल्पवास का अर्थ होता है संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। प्रयाग इलाहाबाद कुम्भ मेले में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक रहता है। कल्पवास क्यों और कब से : कल्पवास वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। कल्पवास का विधान हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था तब यह भूमि ऋषियों की तपोस्थली थी। प्रयाग में गंगा-जमुना के आसपास घना जंगल था। इस जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी।
मैने एक दिन अच्छे से समझा दिया,’’ आगे फिर कभी मेरी माँ कि लिए इस लहजे में बात करने से पहले एक बात जान लो --- मैं भी उसी माँ की बेटी हूँ . . .ऐसा न हो वही कहानी इस घर में भी दोहरायी जाये ---’ तुम्हारे फूफा साहब डिप्लोमेट थे, बड़े-बड़े राजनीतिक मसलों में कब कौन सी नीति अपनानी है भली-भांति जानने वाले--- अपने घर के मसले पर कैसे चूक होती उनसे--- वो दिन और आज का दिन कभी माँ को लेकर कोई हल्की बात नहीं कहीं उन्होंने ---’’
चारू आश्चर्यचकित सी सोच रही थीं काश आज सुचि बुआ जिंदा होती --- काश वो जान पाती- उनकी जात का भरोसा सिर्फ तीन लोग नहीं करते थे --- उनका अपना खून --- उनकी अपने बेटी भी शामिल थी उन भरोसा करने वालो में --- सच कितनी रईस थीं सुचि बुआ !
संक्रांति पर्व पर शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंतिल -गुड़ ध्या अति
गोड़-गोड़ बोला...
सदाबहार अंक
सादर नमन
तिल -गुड़ ध्या अणि
जवाब देंहटाएंगोड़-गोड़ बोला...
शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएं