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रविवार, 9 मई 2021
3023 ..माँ कहती है बस घर पर बैठो अगले नवरात्र तक.. मैं हूँ न..
26 टिप्पणियां:
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सुप्रभातऔर प्रणाम सभी को। प्राथमिक कक्षा में पढ़ी सुभद्रा कुमारी चौहान जी की रचना पढ़कर मन अपार खुशी से भर उठा। स्वतः ही। रचना के बोल याद आ गए क्योंकि उस समय पसंदीदा रटी कविताओं में ये सबसे ऊपर थी।
जवाब देंहटाएंयह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
कौन भुला सकता है। पठनीय सूत्रों से सजा अभिनव अंक। शामिल सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई इस भावपूर्ण अंक के लिए। आपको आभार और प्रणाम,🙏🙏💐💐
सारे पाठक फेसबुक पर चले गए क्या,,। आज यहां कौन मनाएगा मातृ दिवस ।
जवाब देंहटाएंमां को समर्पित मेरी एक रचना
जवाब देंहटाएंमाँ ज्यों ही गाँव के करीब आने लगी है --------- कविता |
माँ ज्यों ही गाँव के करीब आने लगी है -
माँ की आँख डबडबाने लगी है !
चिरपरिचित खेत -खलिहान यहाँ हैं ,
माँ के बचपन के निशान यहाँ हैं ;
कोई उपनाम - ना आडम्बर -
माँ की सच्ची पहचान यहाँ है ;
गाँव की भाषा सुन रही माँ -
खुद - ब- खुद मुस्कुराने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!
भावातुर हो लगी बोलने गाँव की बोली -
अजब - गजब सी लग रही माँ बड़ी ही भोली ,
छिटके रंग चेहरे पे जाने कैसे - कैसे -
आँखों में दीप जले - गालों पे सज गयी होली ;
जाने किस उल्लास में खोयी -
मधुर गीत गुनगुनाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !
अनगिन चेहरों ढूंढ रही माँ -
चेहरा एक जाना - पहचाना सा ,
चुप सी हुई किसी असमंजस में
भीतर भय हुआ अनजाना सा ;
खुद को समझाती -सी माँ -
बिसरी गलियों में कदम बढ़ाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!
शहर था पिंजरा माँ खुले आकाश में आई -
थी अपनों से दूर बहुत अब पास में आई ,
उलझे थे बड़े जीवन के अनगिन धागे
सुलझाने की सुनहरी आस में आई
यूँ लगता है माँ के उग आई पांखें-
लग अपनों के गले खिलखिलाने लगी है
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!!
बहुत खूबसूरती से माँ की भावनाओं को उकेरा है ।
हटाएंवाह! आदरणीया दीदी जी माँ पर एसी सुंदर रचना तो आप ही प्रस्तुत कर सकती हैं। मन को छूती,भावपूर्ण पंक्तियाँ। सादर प्रणाम आपकी लेखनी को।
हटाएंये तुम्हारा स्नेह है प्रिय आँचल। हार्दिक स्नेह और आभार 💐❤️❤️💐
हटाएंप्रिय दीदी, आपका सादर आभार 🙏🙏🌷❤️
हटाएंवाह!!! अत्यंत भावपूर्ण और मार्मिक!
हटाएंजी आभार आपका 🙏🙏
हटाएंhttps://renuskshitij.blogspot.com/2017/10/blog-post_30.html
जवाब देंहटाएंकहां जाएंगे सखी, आएंगे तो घर पर ही..
हटाएंसादर..
बिलकुल सही कहा आपने। जैसे उड़ी जहाज़ की पंछी फिरी जहाज़ पर आयो!
हटाएंबहुत सुन्दर आज का अंक,प्रिय रेणु जी आपकी रचना लाज़बाब है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दीदी 🙏🙏💐💐🌷
हटाएंसभी जन सदा सुरक्षित व स्वस्थ रहें
जवाब देंहटाएंजय माता की..
जवाब देंहटाएंनमन
जी बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंमैंने तो इनमें से कुछ रचनाओं को पहले ही पढ चुका हूं...पर आपने बेहतरीन रचनाओं को यहाँ प्रस्तुत किया है।
बहुत खूबसूरत लिंक सजाए हैं ।कदंब का पेड़ पढ़ बचपन की याद आ गयी । विश्वमोहन जी की रचना विशेष पसंद आई ।
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति आज की। ।
जी, अत्यंत आभार!
हटाएंआहा!सुभद्रा कुमारी चौहान जी की यह मनभावन कविता हमने सातवी कक्षा में पढ़ी थी तभी से मुझे बहुत प्रिय है यह कविता। आज पुनः पढ़ मन आनंदित हो गया। मंच को बहुत आभार 🙏
जवाब देंहटाएंमातृ दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। बहुत सुंदर अंक है। सभी रचनाएँ बेहद उम्दा 👌
मेरी रचना को स्थान देने हेतु आपका हार्दिक आभार 🙏
सभी को सादर प्रणाम 🙏
वाह शानदार रचना प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अंक। सुभद्राकुमारी चौहानजी की यह सुंदर कविता अविस्मरणीय रचनाओं में से एक है। सादर।
जवाब देंहटाएंआज का अंक पढ़कर आनंद आ गया । सुभद्रा कुमारी चौहान जी की कविता पढ़कर बचपन की सुंदर स्मृति उभर आई,जब हिलहिल कर कविताएं रटते थे ।आदरणीय यशोदा दीदी आपका बहुत आभार, प्रिय रेणु जी आपकी कविता ने तो मन को मोह लिया,कितनी सुंदर सच्चाई बयां की आपने । आप सभी को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई ।।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार जिज्ञासा जी,,
हटाएंबहुत सुंदर लिंक! बधाई और आभार!!!
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