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शुक्रवार, 21 मई 2021

3035...समानता के अधिकार का टूट रहा विश्वास

 शुक्रवारीय अंक में

आप सभी का स्नेहिल अभिवादन
----- 
अपने आस-पास की कराह को अनसुना करना,
परिचित,अनजानी दर्द भरी सिसकियों पर निर्विकार रहना
मरघट में बदलती बस्तियों के मध्य अपने किले की सुरक्षा के लिए रात-दिन प्रार्थना करना सामयिक दौर में मृत्यु औपचारिक समाचार है,जीवन की जटिलता समझने का प्रयास व्यर्थ है ,अगर जीना है तटस्थ रहकर बस सकारात्मकता के मंत्र का जाप करना होगा...
सकारात्मक रहो, सकारात्मकता जरूरी है,जीने के लिए आस चाहिए,उम्मीद पर दुनिया कायम है,समय है रूकेगा थोड़ी गुज़र जायेगा।
क्या सचमुच सकारात्मकता की ओर अग्रसर है हम या स्व के खोल में सिमटे असंवेदनशीलता के नये युग की ओर बढ़ चुके हैं?
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

हर क्षण संविधान के अनुच्छेद चौदह वाले 
समानता के अधिकार का टूट रहा विश्वास।
डाल से लटका आख़िरी पत्ता भी गिरा रहा, 
वो झोंका बंजारा-आवारा हवा का बिंदास।
अनमना मन  इस बारिश के बाद 
इंद्रधनुष को देखूं पर आसमान में काले बादल ही छंट नहीं रहे
सातों रंग अलग न होकर सफेद ही सफेद शेष है
हर तरफ गड़गड़ाहट के बीच चीत्कार गूंजती है
बाहर से न भीग कर भी अंदर तक भीगा है मन
और मैं ताक रही अनमनी सी...उन उम्रदराज शरीरों का मुस्कुराना 
उम्र के इस दौर में सहेजा जाता है 
थके और कमजोर से शरीर के मजबूत हो चुके विचारों में।
उम्र के इस दौर में सुबह अच्छी लगती है सच कि 

तुम्हारी लहराती चुन्नी में
रख रहा हूं सूरज
मुझे मालूम है
तुम फेर कर 
प्रेममयी उंगलियां
बस्तियों की हर चौखट पर
भेजती रहोगी 
सुबह का सवेरा  गुज़रा ज़माना 
वो आहों की गर्मी, वो ख्वाबों में बिखर जाना 
क्या याद नहीं तुमको, वो गुजरा ज़माना
आँखों ही आँखों में दिन यू गुज़रते थे
लब कुछ कहने को रुकते थे, सम्हलते थे।
-----///----
उपर्युक्त रचनाओं के सम्माननीय रचयिता
क्रमशः
एवं
------////----

29 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    समयानुकूल सोच
    अगर जीना है तो तटस्थ रहकर
    बस सकारात्मकता के मंत्र का जाप करना होगा...
    सकारात्मक रहो,
    सकारात्मकता जरूरी है,
    जीने के लिए आस चाहिए,
    उम्मीद पर दुनिया कायम है,
    समय है रूकेगा नहीं
    उसे तो गुज़रना ही है
    यही नियति है
    श्रेष्ठ प्रस्तुति..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ दी।
      आपके सहयोग और स्नेह के लिए सदैव निःशब्द हो जाती हूँ।
      सस्नेह
      सादर।

      हटाएं
  2. स्व के खोल में सिमटे असंवेदनशीलता के नये युग की ओर बढ़ चुके हैं...

    अपना ख्याल रखना छुटकी.. आपको आपकी जरूरत है...

    श्रमसाध्य कार्य हेतु साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ दी आपका स्नेह मिला बहुत अच्छा लग रहा।
      सप्रेम
      सादर।

      हटाएं
  3. समसामयिक सराहनीय अंक । सादर शुभकामनाएं प्रिय श्वेता जी ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय जिज्ञासा जी,
      आपका स्नेह और सहयोग सदा मिलता रहा है बेहद आभारी हूँ।

      सस्नेह
      सादर।

      हटाएं
  4. बेहतरीन आगाज..
    बढ़िया चयन..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय सर,
      प्रणाम।
      बहुत आभारी हूँ।
      सादर।

      हटाएं
  5. उव्वाहहहहह
    परीक्षा हो गई बिटिया की...
    अच्छा अंक..
    सादर वन्दे..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ प्रिय दिबू।
      सस्नेह
      शुक्रिया।

      हटाएं
  6. बहुत अच्छा अंक और सराहनीय लिंक चयन...। मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभारी हूं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय सर,
      प्रणाम।
      बहुत आभारी हूँ।
      सादर।

      हटाएं
  7. उत्तर
    1. बहुत आभारी हूँ आदरणीया कविता जी,
      सस्नेह
      सादर।

      हटाएं
  8. वक़्त का तकाज़ा है
    संवेदनशीलता होते हुए भी
    मन जैसे हो चला है कुंद
    भले ही हो कोई अनजान
    लेकिन इस महामारी ने
    मजबूर कर दिया है
    अजनबियों के लिए भी
    सोचने पर मजबूर
    फिर कैसे कह सकते हैं
    कि बढ़ रहे हम
    असंवेदनशीलता की ओर ।
    **********
    अभी लिंक्स पर नहीं पहुंची हूँ । देखती हूँ एक एक कर ।
    बस एक बात कि कठिन वक़्त में , परेशानियों के दौर में खुद को समेट एक खोल में छुप जाना ही संवेदनशीलता नहीं होती । सीखना चाहिए शरद जी से ,जिन्होंने जैसे सब कुछ खो दिया है फिर भी उनकी जंग जारी है इस ज़िन्दगी से , इस माहौल से, यहाँ के सिस्टम से । वो केवल कविताएँ नहीं लिख रहीं , बना रहीं हैं दस्तावेज़ ।
    शुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय दीदी..

      मुझे भी मिली एक सीख..
      सुन्दर और मिला मौका
      बहादुर बनने का..
      सादर नमन

      हटाएं
    2. प्रिय दी,
      सामयिक सोच,विचार,भावनाएँ परिस्थितियों के अनुरूप पनपते हैं इस दौर से उत्पन्न दृष्टिकोण भी स्थायी नहीं रहेंगे शायद समय के साथ उबर जायें।
      आपका स्नेह और आशीष अमूल्य है।

      सप्रेम
      सादर।

      हटाएं
  9. प्रिय श्वेता ,
    बहुत अच्छी प्रस्तुति बनाई है ।

    टूटते विश्वास के बाद भी
    कुछ प्रिया से संवाद की बात करते हैं
    तो कुछ हैं जो
    उम्रदराज शरीर के मुस्कुराने की बात करते हैं ।
    और ले कर कोई अपना
    अनमना सा मन रंगों में छुप जाने की बात करते हैं ।
    सोचते हैं बांध दें सूरज
    जिसकी चुन्नी में , उसके निः स्वार्थ प्रेम की बात करते हैं ।
    और जब न रह जता कुछ भी कहने को
    तो लोग गुज़रे ज़माने की बात करते हैं ।

    **********
    पढ़ लिया सब
    उम्रदराज शरीर
    अब भी मुस्कुरा रहा है
    उसकी चुन्नी में जो
    देखा है बंधा सूरज
    ज़िन्दगी नाम है बस
    आपस के संवाद का
    बाकी तो आज कल है
    अनमना मन ।
    करें आज की बात तो
    बेहतर
    जो गुज़र गया
    उसे भूल जाएँ ।

    इसी क्रम में आज के लिंक्स 👌👌👌👌👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय दी,
      प्रणाम।
      आपकी प्रेरणा की वजह से ही आज की प्रस्तुति बनाने की हिम्मत मिली है आपका धन्यवाद कहकर आपके अमूल्य स्नेह को कम नहीं कर सकते हैं।
      आपकी प्रतिक्रिया पूरी प्रस्तुति का खुशबूदार अर्क है, बेहद खूबसूरत रचना बना डाली है आपने।
      आपकी रचनात्मकता सराहनीय है सचमुच।
      दी, आपको प्रस्तुति पसंद आयी जानकर अच्छा लग रहा।
      आभारी हूँ दी बहुत।
      सप्रेम।
      सादर।

      हटाएं
  10. सबसे पहले यह कहूंगा कि आप अचानक कहाँ चली गयी थीं? कितने समय बाद आपकी कोई प्रस्तुति आयी है।

    यहाँ प्रस्तुत सभी रचनाओं की अलग-अलग खूशबू है। इन्हें पढकर सुखद अनुभव रहा। अभिनन्दन आपका।

    जवाब देंहटाएं
  11. प्रिय श्वेता, संवेदनाओं को झझकोरती भूमिका के साथ उल्लेखनीय सूत्रों के संयोजन के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं प्रिय श्वेता। आज तठस्थ रहना मानव की सबसे बड़ी मजबूरी बन गई हैं। संक्रमण काल में ज्यादा सक्रियता अभिशाप सरीखी बन चुकी है। आज के सभी स्टार रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।💐💐❤️🌷

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ प्रिय दी।
      आपका स्नेह संबल बनकर सदैव हर परिस्थिति में साथ रहा है।
      सप्रेम प्रणाम दी।
      सादर।

      हटाएं
  12. आदरणीया मैम, आज इतने दिनों बाद आपकी प्रस्तुति देख कर आनंदित हूँ। समसामयिक परिस्थिति पर बहुत ही सशक्त भूमिका के साथ भावपूर्ण और सुंदर रचनाएँ।
    अपने आस-पास इतना दुख देख कर दुखी न होना तो सम्भव नहीं है पर सकारात्मक रह कर इस परिस्थिति से संघर्ष करने के सिवा कोई और उपाय नहीं और क्या पता सकारात्मक मन से अच्छे काम करने से कोरोना जल्दी डर कर भाग जाए।
    मैं भी कई दिनों से आ नहीं पा रही थी यहाँ, आज इतने दिनों बाद आना और आपकी प्रस्तुति देखना सुखद है।
    सभी स्वस्थ और सुरक्षित हों।
    सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार व आप सबों को प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय अनंता,
      स्नेहाशीष।
      तुम्हारी उत्साह वर्धक प्यारी सी प्रतिक्रिया पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा।
      स्वस्थ रहो, सदा खुश रहो।
      सस्नेह।

      हटाएं
  13. जी ! नमन संग आभार आपका ...
    "अनजानी दर्द भरी सिसकियों पर निर्विकार रहना".. ऐसा कुछ नया तो नहीं घट रहा आज .. ये तो हमारे DNA में है। सिसकियों और चीत्कारों को दरकिनार कर आज़ादी का जश्न मनाने वाला 14-15 अगस्त'1947 या 1984 जैसी अनेकों घड़ियाँ हैं .. हमारी असंवेदनशील अनुवांशिकता झलकाने के लिए .. शायद ...
    आज की प्रस्तुति में मेरे विचार को स्थान देने के लिए आभार आपका .. स्वस्थ रहिए, खुश रहिए .. सपरिवार ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी,बहुत-बहुत आभारी हूँ आपकी बहुमूल्य सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए।

      आपके स्वास्थ्य की, शुभता की कामना करती हूँ।
      सादर।

      हटाएं
  14. प्रभावी और कमाल की भूमिका
    साधुवाद आपको
    सुंदर सूत्र संयोजन
    सभी को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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