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रविवार, 29 सितंबर 2024

4262 ..उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए

 सादर नमस्कार




कुतिया की दुम सीधी होगी,
बीड़ा मैंने उठा लिया।
रोआं रोआं नोच लिया है,
बन्धन ढीला नहीं हुआ।
अर्द्धशतक तो बिता दिया है,




 कभी प्लावित थी,
सलिला इस पथ पर!
कर गई परित्यक्ता,
परती को,
प्रविष्ट हो पाताल में।
सूख कर सुर्ख-सी
भुर-भुराकर बुरादों में
मृतप्राय मृदिका!
बन गई बालुकूट।





इतनी सी बात हिन्दुत्व की बागडोर थामे ना तो नेतृत्व समझता और ना ही हम जो बंटने पर हार हाल में आमादा हैं जैसे क‍ि -

कुम्हार, सुथार, विश्वकर्मा, नाई, लुहार, चर्मकार, पंड‍ित, बन‍िया और ठाकुर...फेहर‍िस्त बड़ी लंबी है  ....कहां तक ल‍िखूं ...आज मन इस बंटाव को देखकर दुखी है क‍ि हम कहां थे और कहां आ गए...नौकरी की भीख मांगत मांगते ।

हसीब सोज़ का एक शेर देख‍िए----

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीख को जिस ने पुरुस-कार समझ रक्खा है।




मुग्ध नहीं हैं तो सिर्फ़ वो
जो स्वीकार नहीं करते बंधन
अतः आज़ाद हैं
बंधनों से मुग्धता से
क्यूंकि वो जानते हैं
आत्म प्रदर्शन मुग्ध कर देता है।




बस अब एक अंतिम सांस का
छूटने का इंतजार है ।

ठीक वैसे ही
जब तुम छोड़ कर चले गए थे

****

चलते -चलते ...
सर्वस्व दान ...



एक पुराना मन्दिर था| दरारें पड़ी थीं| खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली| मन्दिर बहुत-सा भाग लड़खड़ा कर गिर पड़ा| उस दिन एक साधु वर्षा में उस मन्दिर में आकर ठहरे थे| भाग्य से वे जहाँ बैठे थे, उधर का कोना बच गया| साधु को चोट नहीं लगी|

साधु ने सबेरे पास के बाजार में चंदा करना प्रारम्भ किया| उन्होंने सोचा – ‘मेरे रहते भगवान् का मन्दिर गिरा है तो इसे बनवाकर तब मुझे कहीं जाना चाहिये|’

बाजार वालों में श्रद्धा थी| साधु विद्वान थे| उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया| मन्दिर बन गया| भगवान् की मूर्ति की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई| भण्डारा हुआ| सबने आनन्द से भगवान् का प्रसाद लिया|

भण्डारे के दिन शाम को सभा हुई| साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिये खड़े हुए| उनके हाथ में एक कागज था| उसमें लम्बी सूची थी| उन्होंने कहा – ‘सबसे बड़ा दान एक बुढ़िया माता ने दिया है| वे स्वयं आकर दे गयी थीं|’

लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढ़िया ने सौ-दो-सौ रुपये दिये होंगे| कई लोगों ने सौ रुपये दिये थे| लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ|

जब बाबा ने कहा – ‘उन्होंने मुझे चार आने पैसे और थोड़ा-सा आटा दिया है|’ लोगों ने समझा कि साधु हँसी कर रहे हैं|

साधु ने आगे कहा – ‘वे लोगों के घर आटा पीसकर अपना काम चलाती हैं| ये पैसे कई महीने में वे एकत्र कर पायी थीं| यही उनकी सारी पूँजी थीं| मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूँ|’

लोगों ने मस्तक झुका लिये| सचमुच बुढ़िया का मन से दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था|

****
बस

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति आदरणीय सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

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