।।प्रातःवंदन।।
सुबह-सुबह मोबाइल पर यूँ ही उँगली फिरा रहा था कि स्क्रीन पर सहसा एक छोटी खिड़की खुल गई।‘मैं आपकी सहायिका हूँ।कहिए आपके लिए क्या कर सकती हूँ ?’ यह बात उसने बोली नहीं बल्कि मुझे लिखकर बताई।
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अन्याय कब नहीं था ?
मुंह पर ताले कब नहीं थे ?
हादसों का रुप कब नहीं बदला गया ?!!!
तब तो किसी ने इतना ज्ञान नहीं दिखाया !
और आज ..
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उस आदमी के नाम जिसने
अपनी खूंरेज़ियों
का जिक्र करते हुए कहा :
जब मैंने एक बुढ़िया को मारा
तो मुझे ऐसा लगा--
'मुझसे क़त्ल हो गया...
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बहुत दिनों से विचार चल रहा था शिवा बाबा जाना है लेकिन दो घंटे का रास्ता गर्मी उमस के चलते मैं ही जाना टालती रही। शुक्रवार फिर मन बना लेकिन शनिवार लोक अदालत है इसलिए नहीं जा पाये फिर तय हुआ रविवार को चलेंगे।
आज सुबह निकलना तो जल्दी था लेकिन कुछ रविवार का आलस कुछ काम निपटा लेने का लालच दस साढ़े दस बज ही गये। अच्छा यह था कि आज धूप नहीं थी। खरगोन से
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '...✍️
शानदार चयन
जवाब देंहटाएंआभार
वंदन
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
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