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गुरुवार, 19 सितंबर 2024

4251...कुम्हलाए हुए ख़्वाब को जैसे रात ढले सींच गया कोई...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय शांतनु सान्याल जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए आज की पाँच चुनिंदा रचनाएँ-

उस पार - -

कुम्हलाए
हुए ख़्वाब
को जैसे
रात
ढले सींच गया कोई, अस्थिर
कमल पात पर देर तक
ठहरा हुआ था मेह

बूंद,

*****

प्रतीक्षा

जैसे राधा का तन-मन

बस उस एक आहट का प्यासा हो

युगों से, युगों-युगों से

उठे नयन उस ओर, हुए नम

एकाएक प्रकट हुआ वह

हाँ, वही था

फिर हो गया लुप्त

संभवतः दिया आश्वासन

यहीं हूँ मैं!

*****

 ६८४.नदी से

सच है कि कभी-कभार

तुम दिखा देती हो रौद्र रूप,

घुस जाती हो घरों में,

पर ये लोग फिर आएंगे,

अपने टूटे घर संवारेंगे,

कछारों में नए घर बनाएंगे.

*****

यह घर भी तुम्हारा ही है

मम्मी इसीलिये मैं भी इस बार घर नहीं आउँगा ! हम तीन चार दोस्त यही रहेंगे फरहान के साथ मुम्बई में ताकि वह अकेला न हो जाये !

नहीं बेटा ! तुम घर ज़रूर आओगे और अकेले नहीं आओगे फरहान को साथ लेकर आओगे ! उससे कहना यह घर भी तुम्हारा ही है और यह परिवार भी !सविता की आवाज़ में दृढ़ता भी थी और अकथनीय प्यार भी !   

*****

पुरानी तस्वीर...

मुझे याद है कि किसी बात पर गुस्सा होकर चुपचाप बैठी अपने स्कर्ट की हेमलाइन ठीक कर रही थी। मुझे मनाने के लिए चाचा जी ने कैमरा उठाकर एकदम से क्लिक कर दिया और मैं मुस्करा पड़ी थी।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव  


4 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात !! पठनीय रचनाओं से सजा सुंदर अंक, आभार !

    जवाब देंहटाएं
  3. अप्रतिम प्रस्तुति, असाधारण रचनाएं, मुझे शामिल करने हेतु अशेष धन्यवाद, नमन सह ।

    जवाब देंहटाएं

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