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मंगलवार, 24 सितंबर 2024

4256...खुरचा हुआ चाँद

मंगलवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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दिनकर जी आधुनिक युग के उन कवियों में से हैं, जिन्होंने काव्य जगत पर छाये हुए बादलों के कुहासे को चीरकर राष्ट्रीयता और मानवता का प्रखर प्रकाश विकीर्ण किया।

ऐसे समय में, जब देश का लेखक वर्ग राजनीतिक विचारों के आधार पर बुरी तरह विभाजित हैं, जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने में भी राजनीतिक दलों के नफ़े-नुकसान का गणित लगाया जा रहा है, यहां तक कि लोगों की जानों को भी जाति और धर्म के चश्मे से देखकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जाने लगी हैं, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर

(23 सितंबर 1908 - 24 अप्रैल 1974)


को याद करना न सिर्फ़ समाज और राजनीति को नई दिशा देने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हो सकता है, बल्कि लेखकों को भी उनके दायित्व बोध का अहसास कराने में अहम साबित हो सकता है|


हिंदी साहित्य में दिनकर की पहचान राष्ट्रकवि के रूप में है। उनका साहित्य राष्ट्रीय जागरण व संघर्ष के आह्वान का जीता-जागता दस्तावेज़ है। दिनकर जी की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना कई स्तरों पर व्यक्त हुई है।

दिनकर मानव-मात्र के दुख-दर्द से पीड़ित होने वाले कवि थे. राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था,शायद इसीलिए वह जन-जन के कवि बन पाए और स्वतंत्र भारत में उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा मिला.

 दिनकर को इस ऊँचे ओहदे पर देश की जनता ने बिठाया है।

उनके समालोचक भी दिनकर के योगदान को स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए हैं। दिनकर जी की पथप्रदर्शक

लेखनी को शब्दों में बाँध पाना आसान नहीं।


आज की रचनाएँ


शाम की गठरी में
दिखा खुरचा हुआ चाँद,
अलोप लगे कुछ तारों के कंचे भी,
भटकती आत्माएँ विलुप्त जुगनुओं की यहाँ-वहाँ.. शायद ...

सिकड़ी में जकड़ी सुगंधें,
दिखी बिखरी ठठरियाँ फूलों की,
टकले दिखे सारे के सारे जंगल भी,
मानव दिखे ग़ुलाम-हाट में, रोबोट बने क्रेता-विक्रेता.. शायद ...



भूलकर ये, 
कि 
सृष्टि की
निर्मम
व्यवस्था में 
नहीं है
कोई 
"परमानेंट"
होता है रिन्यू
यहां अपने ही 
सत्कर्मों
से 
हर क्षण
नया कॉन्ट्रैक्ट।



सहज मैत्री, विश्वास, आस्था 

आभूषण शोभित करते तन, 

करुणा, ममता और सरलता 

से ढँका-ढँका मन का हर कण !




केशव से अर्जुन कहे, निकले जाते प्राण। 
गुरुवर मेरे सामने, कैसे छोड़ूँ बाण ।। 

पितामह खड़े उस तरफ, उनसे बेहद प्यार। 
गोदी में खेला किया, अब कैसे दूँ मार ।।

पुत्र तात के हैं सभी, दुश्मन राजकुमार। 
फिर निश्चित यह भी नहीं, जीत मिले या हार ।।




मैं नहीं लौटा हूँ यहाँ वापस
मेरी निगाहें नहीं तरस रहीं
इस मंज़र को गले लगाने
नहीं झुकता कभी 
मजाल किसकी दिखाये राह मुझको रोता नहीं 
हलाक हुए स्कूली बच्चों की ख़ातिर 
जाता नहीं कभी कहवाघरों की तरफ़ 
नहीं भाते खण्डहर 
बिदा लेता हूँ जब उनसे 
निकलता नहीं बिदाई का एक भी लफ़्ज़ 
जो कर दे ज़ाहिर मायूसी को

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आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. दिनकर जी को शत-शत नमन
    शानदार अंक
    आभार
    वंदन

    जवाब देंहटाएं
  2. जी ! .. सुप्रभातम् सह मन से नमन संग आभार आपका .. हमारी बतकही को इस मंच पर अपनी बहुविध रचनाओं वाली प्रस्तुति में स्थान प्रदान करने हेतु ...🙏
    आज की भूमिका में ओजस्वी कवि की ओजपूर्ण रचनाओं के हवाले से उनके जन्मदिन पर याद करना-कराना बहुत ही सुखद अनुभूति दे पा रहा है .. इसी क्रम में छिछोरे लोगों की छिछोरी सोचों वाली राजनीति से प्रेरित ऊटपटाँग शब्दों की गंगधार (?) बहाने के बहाने स्वपरिचय देने वालों की टाँग-खिंचाई भी आवश्यक ही है .. शायद ...

    जवाब देंहटाएं
  3. राष्ट्रकवि दिनकर के साहित्य और समाज को दिये गये अप्रतिम योगदान को स्मरण कराती सुंदर भूमिका और सराहनीय रचनाओं का संयोजन, आभार श्वेता जी !

    जवाब देंहटाएं
  4. शानदार प्रस्तुति
    सांख्य योग (भाग - 1 ) को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार आदरणीय

    जवाब देंहटाएं

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