प्रणामाशीष
अब अभ्यस्त हो चली हूँ या यूँ कहिये
शुतुरमुर्ग से सीखने की कोशिश में हूँ
खतरे को भांपकर सिर को रेत में छिपा लेता है
'शुतुरमुर्गी चरित्र' मेरी सोशल डिस्टेंसी
अतीत की कड़वी यादों में.
मत जीने दो मुझे.......
अब जीने दो मुझे भी.....
मेरी अस्मिता के साथ
इतना तो कर सकते हो न..?
हालाँकि टी.वी. चैनलों पर
सीधा प्रसारण होता है
केवल ' विश्व-सुंदरियों ' की
' कैट-वाक ' का
पर उससे भी
कहीं ज़्यादा सुंदर होती है
कामगार औरतों की
थकी चाल...
स्वयं के पक्ष में
एक सभ्यता मरती है
समाज डूबता है तो
उसके दर्द में एक कवि-
शब्दों में बंधे सुर-धुन-लय तक
व् कथित विद्वान्
कागज की धरती पर
रिसते हुए रीत जाता है
गज़ल
सच बोलने की कसम खाने से
दुश्मनी हो गई सारे जमाने से
मै अपनी माँ का सबक भूलूं कैसे
कि लगेगा पाप सच छुपाने से
पहले सीख लूँ एक सामाजिक भाषा
><><
पुन: मिलेंगे...
><><
विषय-क्रमांक –114
पलाश
उदाहरण
सुनो, तुम आज मेरा आंगन बन जाओ,
और मेरा सपना बनकर बिखर जाओ।
मैं...मैं मन के पलाश-सी खिल जाऊं,
अनुरक्त पंखुरी-सी झर-झर जाऊं।
सुनो, फिर एक सुरमई भीगी-भीगी शाम,
ओढ़कर चुनर चांदनी के नाम ।
मैं....तुम्हारी आंखों के दो मोती चुराऊं
और उसमें अपना चेहरा दर्ज कराऊं।
रचनाकार निशा माथुर
अंतिम तिथिः 04 अप्रैल 2020
प्रकाशन तिथिः 06 अप्रैल 2020
सादर नमन
जवाब देंहटाएंसदा की तरह बेहतरीन
क्या आप अभी भी देश से बाहर हैं
सुरक्षित रहिएगा
सादर
सस्नेहाशीष व शुभकामनाओं के संग शुक्रिया छोटी बहना
हटाएंअपना सोचा कहाँ होने देता है वक्त
–13 जून की वापसी टिकट लेकर आये थे.. आकर 17 मई का हुआ
–अब तो अनिश्चित काल
–पता नहीं लौट पाते हैं कि नहीं
सुंदर प्रस्तुति 👌👌👌
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअब अभ्यस्त हो चली हूँ या यूँ कहिये
जवाब देंहटाएंशुतुरमुर्ग से सीखने की कोशिश में हूँ
खतरे को भांपकर सिर को रेत में छिपा लेता है
'शुतुरमुर्गी चरित्र' मेरी सोशल डिस्टेंसी
भूमिका की पंक्तियों ने मन झकझोर दिया दी।
सभी रचनाएँ उत्कृष्ट हैं।
बहुत सुंदर प्रस्तुति हमेशा की तरह।
सादर।
निशब्द हूँ आदरनीय दीदी ! बुनकर अंक तो लाजवाब था ही पर ये अंक अनूठा ही है | प्रतिक्रिया विस्तार से ना देने का अफ़सोस होता है | पर ये अंक सराहना से परे | बेबाक भूमिका सोचने पर मजबूर कर गयी | सभी रचनाएँ बहुत मार्मिक पर ये रचना मानों अंक का चयनित नगीना है और आपके उत्तम पाठक होने का प्रतीक --
जवाब देंहटाएंकामगार औरतों के
स्तनों में
पर्याप्त दूध नहीं उतरता
मुरझाए फूल-से
मिट्टी में लोटते रहते हैं
उनके नंगे बच्चे
उनके पूनम का चाँद
झुलसी रोटी-सा होता है
उनकी दिशाओं में
भरा होता है
एक मूक हाहाकार
उनके सभी भगवान
पत्थर हो गए होते हैं
ख़ामोश दीये-सा जलता है
उनका प्रवासी तन-मन
फ़्लाइ-ओवरों से लेकर
गगनचुम्बी इमारतों तक के
बनने में लगा होता है
उनकी मेहनत का
हरा अंकुर
उपले-सा दमकती हैं वे
स्वयं विस्थापित हो कर
हालाँकि टी.वी. चैनलों पर
सीधा प्रसारण होता है
केवल ' विश्व-सुंदरियों ' की
' कैट-वाक ' का
पर उससे भी
कहीं ज़्यादा सुंदर होती है
कामगार औरतों की
थकी चाल
| आग्रह है सभी ये रचनाएँ जरुर पढ़ें | सादर शुभकामनाएं और प्रणाम |
उम्दा और उत्कृष्ट रचनाओं से सजी शानदार हलचल प्रस्तुति।सही कहा सखी रेणु जी ने कि प्रतिक्रिया न देने का अफसोस है। वाकई कमाल का लेखन है
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाओं का रसास्वादन कराने हेतु आदरणीय विभा जी का हार्दिक आभार।
सुशांत सुप्रिय की कविताओं की चर्चा यहाँ करने का आभार
जवाब देंहटाएंमेरा दुर्भाग्य कि मैं उओ के ही ब्लॉग के बारे में आज देख पाया।
सुशांत सुप्रिय की कविताओं की चर्चा यहाँ करने का आभार
जवाब देंहटाएंमेरा दुर्भाग्य कि मैं अपने के ही ब्लॉग के बारे में आज देख पाया।