मंगलवारीय अंक में आप सभी का
स्नेहिल अभिनंदन
अंधी भीड़
रौंदती है सभ्यताओं को
पाँवों के रक्तरंजित धब्बे
लिख रहे हैं
चीत्कारों को अनसुना कर
क्रूरता का इतिहास।
आत्माविहीन भीड़ के
वीभत्स,सड़ी हुई बदबूदार
देह को
धिक्कार रही है,
कुपित हो
शाप दे रही है,
तड़पती मानवता।
©श्वेता
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
कभी शहद कभी प्याज से काम चलाना पड़ता है
उसी का तन-मन सुखी जो समय देख चलता है
कभी के दिन तो कभी रात बड़ी होती है
विपत्ति मनुष्य के साहस को परखती है
काम बिगड़ते देर नहीं बनते देर लगती है
मृत्यु सब गलतियों पर नकाब डाल देती है।
◆
दुर्घटना में घायल
सड़क पर तड़पते
दंगों में जान लेते
वहशी दरिंदों से
जान की भीख माँगता
निरपराध लाचार
◆
दिल में जब इंसानियत जग जायेगी
मन की सब मनहूसियत भग जाएगी
बस किसी के काम आना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीखलो
किसी की मुश्किल में उसका साथ दो
सहारे को बढ़ा अपना हाथ दो
गिरते को ,ऊपर उठाना सीखलो
आप थोड़ा मुस्कराना सीखलो
◆
मनुष्यता की तो क्या ही कहें, कुछ रोज पहले एक दोस्त ने बताया कि उसके मोहल्ले में कुछ संस्थाएं आयीं राशन बांटने. उन्होंने मोहल्ले के कुछ रसूख वालों को दे दिया राशन और खुश होकर दान देने वाले सुकून को लेकर, मदद कर दी इसका सुख लेकर चले गये. दोस्त ने बताया कि राशन मोहल्ले के कुछ घरों में आपस में ही बंट गया. जरूरतमंदों को तो महक तक न पहुंची.
पूर्ण-सहभागी-अवलोकन में आत्मनिष्ठा के दोष से बचने के बाद जो दूसरी महत्वपूर्ण बात आती है, वह है -“समाज में साथ-साथ बहने वाली अनेक धाराएँ, साथ-साथ बढ़ने वाली अनेक प्रवृतियाँ और साथ-साथ दिखने वाले अनेक लक्षण”! इनमें देखें तो सभी को, लेकिन समाज की मौलिक पहचान के रूप में पहचानें उसी को जो उस समाज की स्थापना का लक्ष्य है, जो उस समाज के व्यक्ति की जीवन प्रणाली का आदर्श है और जिसके उल्लंघन से उस समाज का ‘कलेक्टिव काँसस’ आहत होता है। यदि किसी लक्षण के विरोध में समाज मुखर हो जाय तो निश्चित रूप से वह लक्षण उस समाज के मौलिक चरित्र का विलोम है। लेकिन,यदि किसी लक्षण के अनैतिक और आपराधिक होने के बाद भी वह समाज अपने ऐसे लक्षण धारियों की प्रत्यक्ष रूप से निंदा नहीं करता, उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं करता या फिर जान बूझकर आँखें बंद कर लेता है, तो धीरे-धीरे वे लक्षण उस समाज के मूल्य बनने लगते हैं और बाद में वहीं लक्षण उस समाज की संस्कृति बन जाते हैं।
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और अब हम-क़दम का एक सौ सत्रहवाँ विषय
प्रदत्त चित्र पर किसी भी विधा में
रचना लिखनी हैं।
उदाहरण
कृष्ण कुमार की रचना
गर्म दीवारों पर प्रतिदिन उसके
जलता है मानचित्र
लोकतन्त्र का
फ्रेम से गिरकर
बाहर निकल आती
आजादी की उपेक्षित तस्वीर।
बहुत बार देखा है उसने देश को
रोटी की तरह रंग बदलते
बौनी दीवारों पर उसके
पकता है हर रोज
पूरा देश
देश....
जो नहीं कुछ और
रोटी के ठण्डे टुकड़ों की
अंतिम तिथि: 25 अप्रैल2020
प्रकाशन तिथि:27अप्रैल 2020
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#श्वेता सिन्हा
बस किसी के काम आना सीखलो
जवाब देंहटाएंआप थोड़ा मुस्कराना सीखलो
... बहुत सुंदर संकलन, उम्दा भूमिका।
बेहतरीन...
जवाब देंहटाएंकई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
-बाबा नागार्जुन
भूमिका में दर्द छलक रहा.. पुलिस प्रशासन नेताओं के कैद में है.. पुलिस वर्ग को ऐसा ही देख रही हूँ वर्षों से.. बबूल बोते रहने के बाद आम की उम्मीद नहीं की जा सकती और आज जब सब कुछ खत्म होने के कगार पर है सोशल डिस्टेंसी पर निर्भर जिंदगी कब तलक चलेगी नहीं मालूम तब भी किसे क्या चाहिए समझ के बाहर है
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रस्तुतीकरण
सदा स्वस्थ्य रहो दीर्घायु हों
जी प्रणाम दी।
हटाएंसादर।
वाह!सुंदर भूमिका !सभी लिंक उम्दा 👌
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति में मेरी पोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंAkshaya Tritiya Date 2020 | Akshaya Tritiya 2020 Kab Hai अक्षय तृतीया सोना खरीदने का शुभ मुहूर्त
सामायिक चिंतन को समेटती असरदार भूमिका के साथ बेहतरीन रचनाओं का संकलन। सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को इस प्रस्तुति में सम्मिलित करने हेतु सादर आभार श्वेता जी।