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बुधवार, 19 अप्रैल 2017

642.....सोच, कपडे़ और खुश्बू नहीं बताते

सादर अभिवादन...
आज मै आपके समक्ष हूँ...
बिना किसी लाग-लपेट के सीधे चलें पसंदीदा रचनाओं की ओर...

वो देखो मदारी आया
बच्चों को बहुत भाया
तरह तरह के खेल दिखाता
कभी बन्दर को दुल्हन बनाता
कभी खुद बन्दर बन हँसता


ख़िताबत......राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"
मेरे दर्द को तुम ना समझ पाओगे उम्र भर,
मेरी जगह पर तुम ख़ुद को रखो  तब तो बात हो।

ना देख हिक़ारत की नज़रों से मुझे ऐ “राही”
मुझ में बसे ख़ुदा को देखो तब तो बात हो ।

एक घर तलाशते ग़ैरों की नीड़ में... डॉ. जेन्नी शबनम
रूबरू होने से कतराता है मन  
जंग देख न ले जग मुझमें औ ज़मीर में!  

पहचान भी मिटी सब अपने भी रूठे  
पर ज़िन्दगी रुकी रही कफ़स के नजीर में!  


गुज़रे क़दम-क़दम पे किसी इम्तिहां से हम....हरदीप बिरदी
माँगा जो उसने हमने वो वादा तो कर दिया
सोचा नहीं निभायेंगे इसको कहाँ से हम 

ईमां भी बेच दूँ मैं मगर यह तो सोचिये 
जायेंगे खाली हाथ ही इक दिन जहाँ से हम 

बातें खुशबू की...डॉ. सुशील कुमार जोशी


मेरे काम में दखलंदाजी
लगती है आप को 
हमेशा ही बेमतलब
इसलिये मुझे हमेशा
कोई ना कोई 
पुरुस्कार जरूर
कुछ पाना है 
समय नहीं है 
ज्यादा कुछ 
बताने के लिये
कल की मीटिंग 
के लिये अभी
मुझे नाई की 
दुकान पर 
फेशियल करवाने
के लिये जाना है ।

आज्ञा दें दिग्विजय को..
फिर मिलेंगे










7 टिप्‍पणियां:

  1. मानव व्यक्तित्व को जागृत करती रचना संग्रह ,सुन्दर ! आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर प्रस्तुति। आभार दिग्विजय जी 'उलूक' के सूत्र पर नजरे इनायत के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. "पांच लिंकों का आनंद में" सम्मलित सभी रचनाओं का आनंद लिया इसके लिए आपको तहे- दिल से शुक्रिया दिग्विजय जी।

    जवाब देंहटाएं

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