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गुरुवार, 2 मार्च 2017

594...गुरमेहर प्रकरण : दो मिनट का मौन...........

जय मां हाटेशवरी...

जैसे महाभारत में...भीष्म जैसे देव-पुरुषों ने...अमन के लिये...भारत का विभाजन स्वीकार किया था...
वैसे ही 1947 में...महात्मा गांधी जी के पास भी...अमन के लिये....देश का विभाजन स्वीकार करना ही...
एकमात्र यही विकल्प रहा होगा...पर देश में आज भी अमन नहीं है... पर हम हमेशा ही...अपने अतीत को भूल जाते हैं...

भीष्म ने महाभारत में ठीक ही कहा था...
"पितामह भीष्म युधिष्ठिर से : राजीनीति का मूल तत्व है कि देश के हितों से बढ़कर तो राजा का कोई और हित हो ही नहीं सकता । और पुत्र यदि तुम्हे ये दिखाई दे कि तुम्हारा कोई ऐसा कोई हित है तो समझ लो कि तुम भी राजधर्म से भटक गए हो । देश राजा के लिए नहीं होता पुत्र राजा देश के लिए होता है । और वो राजा कभी अपने देश के लिए शुभ नहीं होता जो अपने देश के आर्थिक और सामाजिक दोष के लिए अपने अतीत को उत्तरदायी ठहरा कर संतुष्ट हो जाए । यदि अतीत ने तुम्हे एक निर्बल आर्थिक और सामाजिक ढांचा दिया है तो उसे सुधारो उसे बदलो क्यूंकि अतीत तो यूँ भी वर्तमान की कसौटी पर कभी खरा उतर नहीं सकता ।
क्यूंकि अतीत यदि स्वस्थ होता और उसमे देश को प्रगति के मार्ग पर ले जाने की शक्ति होती तो फिर परिवर्तन ही क्यों होता ??
किसी समाज की सफलता की सही कसौटी यही है कि वहाँ नारी जाति का मान होता है या उसका अपमान किया जाता है । देश की सीमा माता की वस्त्र की भांति आदरणीय है उसकी सदैव रक्षा करना चाहिए ।
धर्म विधियों या औपचारिकताओं का अधीन नहीं है । धर्म अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के संतुलन का नाम है । इसलिए धर्म का पालन अवश्य करो । राज धर्म भी यही है किन्तु राजा का दायित्व नागरिक के दायित्व से कहीं अधिक होता है । यदि कोई परिस्थिति देश के विभाजन की मांग कर रही हो तो कुरुक्षेत्र में आ जाओ किन्तु देश का विभाजन कभी ना होने दो ।
क्या तुम पाँचों भाई माता कुंती को काट कर आपस में बाँट सकते हो ??  यदि नहीं तो मातृभूमि का विभाजन कैसे संभव हो सकता है ??"

अब देखिये आज के लिये मेरी पसंद...
गुरमेहर प्रकरण : दो मिनट का मौन............सुशोभित सक्तावत
कुतर्क : ऐतिहासिक अन्याय जैसा कुछ नहीं होता। "एग्रेशन" और "प्रोवोकेशन" जैसा कुछ नहीं होता। संप्रभुता नहीं होती। राष्ट्र नहीं होता। भूगोल नहीं होता। केवल "युद्ध" होता है। 1948, 1965, 1971, 1999 में युद्ध "हुआ" था। किसी ने वह युद्ध "किया" नहीं था। या बेहतर हो अगर कहें कि युद्ध ने पाकिस्तान और भारत किया था।
भारत और पाकिस्तान ने युद्ध नहीं किया था। और युद्ध की पहल युद्ध द्वारा की गई थी, युद्ध की पहल पाकिस्तान द्वारा नहीं की गई थी। इसलिए वो सही है!
जिसे कि अंग्रेज़ी में कहते हैं : RIP, Logic!
भारतवर्ष के बुद्ध‍िजीवियों को तर्कसंगति के इस दु:खद अवसान पर दो मिनट का मौन रखना चाहिए।


पोटली .......दीप्ति शर्मा
टटोलकर कुछ बादलों को
वो सौंप देगी ये पोटली
फिर चली आयेगी उसी राह से
फडफडाती आंखों की चमक के साथ
इसी उम्मीद में कि अब इन शहरों में
बारिसों का शोर सुनाई नहीं देगा
लोग उत्साहित होंगें पानी के सम्वाद से
क्योंकि भरे हैं अब भी
दुख उसी पोटली में

कहां खो गई वह पहली तारीख
अब पहली  तारीख का इंतजार नही करते । आखिर करें भी तो क्यों । उनके लिए तो हर तारीख पहली है ।
दर-असल इस गीत की पहली तारीख उस दौर की मध्यमवर्गीय परिवारों की कठिन जिंदगी को अभिव्यक्त करती रही है । आय के सीमित साधन, कम वेतन और बडे परिवारों की जिम्मेदारियां तीस दिन के महीने को पहाड सा बना दिया करती थीं । अकस्मात खर्चे तो पहले से ड्गमगाती परिवार की नैया के लिए किसी निर्मम लहर के प्र्हार से कम नहीं महसूस होते । लेकिन हिचकोले खाती परिवार की नैया कभी डूबती भी नही थी । बिन बुलाए मेहमान की तरह आए वह खर्चे भी येनकेन निपटा लिए जाते ।

बाबू जी मना करते हैं -
मेमसाब - हेलो…अरे सुमन कैसी हो?...क्या बताऊं?....तुम्हारे बाबूजी को टाइम कहां?…मैं तो हर वक़्त तैयार हूं.... मेमसाब आहट सुनकर बाहर आती हैं। पड़ोस में साड़ी वाला है। वो मेमसाब की ओर मुखातिब होता है - जी बहन जी। आप भी ये साड़ी ले लीजिये। एक्सपोर्ट क्वालिटी है। दोबारा नहीं आने की। एक्साइज़ भी बढ़ने जा रही है। अभी तो बहुत सस्ती है। सिर्फ दो हज़ार में। मेमसाब - ना बाबा ना। बाबूजी मना करते हैं। इतनी महंगी नहीं पहननी।
नोट - पत्नियों को जब भी किसी से न करनी होती है तो पति के कंधे पर रख कर बन्दूक चलाती हैं। ऐसा रोज़ होता है। अगर ये सब फेरी वाले, प्रोविजन स्टोर वाले, इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर आदि मेमसाब के कथन पर यकीन कर लें तो दफ्तर से लौटते वक़्त बाबू जी रोज़ पिटें।

अपने हिस्से की बूँदें
सहरा  हो  या  शहर  तपन  है  राहों में,
जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।
अपने  हिस्से  की  बूँदों  को  ढूँढ  रहा  हूँ,
दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

माना नारी अंततः नारी ही होती है..... +रमेशराज
 क्या मेंहदी रची हथेली और युवा आक्रोश की मुट्ठी में थमी मशाल में कोई अन्तर नहीं होता? यदि ग़ज़ल मादक भंगिमाओं से रिझाने वाले, मदिरापान कराने वाले, रतिक्रियाओं में डूब जाने वाले अपने चरित्र को त्यागकर एक समाज सेविका की भूमिका निभा रही है तो इसे नर्तकी या वैश्या की जगह समाज सेविका कहने में इन रचनाकारों को शर्म क्यूं आती है? कहीं तेवरी का विरोध करने वाले रचनाकार प्रेमी को बाहों में जकड़ने के जोश को आक्रोश तो नहीं समझ बैठे है?

पलाश
सारे जंगल में खि‍ला है पलाश
ये स्‍मरण है तुम्‍हारा ही
बैंजनी आकाश, और
सूखे पत्‍तों में गि‍रा, दहकता पलाश

लच्छे बातों के
राह सही क्यूँ नहीं चुनते
सही राह पर यदि न चलोगे
गिर जाओगे सब की निगाहों में
बहकाना भूल जाओगे उसे |

आज बस इतना ही....
धन्यवाद।























6 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात भाई कुलदीप जी
    आभार
    उत्कृष्ट रचनाओ से सजा आज का अंक
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति कुलदीप जी ।

    जवाब देंहटाएं
  3. भावपूर्ण प्रस्तुति |मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद |

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति‍। मेरी रचना शामि‍ल करने के लि‍ए आभार

    जवाब देंहटाएं

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