कल हमारा ये दैनिक चर्चा ब्लॉग छठा शतक लगाने वाला है...
इस लिये सब कुछ नया है...
जैसे ही कल प्रातः 6 सौवां अंक...
दिखाई देगा...
राजनीति की भाषा में कहूं तो...
हिंदी ब्लॉग संसार में...
...भूकंप आ जाएगा...
देखिये...आज क्या नया है...
ग़ज़ल
आपसी प्यार से ही लोग जुड़े आपस में
बिन मुहब्बत के तो घर एक मकां होता है |
हैं चतुर नेता सभी, काम बताते कुछ भी
हर कदम में कोई इक राज़ निहां होता है |
बस्तों के बोझ तले दबता बचपन
वह लड़खड़ा कर गिरने को ही थी कि बस के कंडक्टर ने पीछे से उसके बस्ते को पकड़ कर उसे गिरने से बचा लिया।मै भी अपनी गुड़िया को बस में चढ़ा कर वापिस घर की ओर चल पड़ी ,लेकिन इस घटना में मुझे झकझोर दिया ,नन्ही सी जान पर इतना जुल्म ,सुबह से शाम तक स्कूल,उसके बाद शुरू हो जाता है ट्यूशन जाने का सिलसिला ,फिर होमवर्क और हर सप्ताह टेस्ट ,सारा वक्त पढाईऔर बस पढाई ।
संसार को सही दृष्टि से देखना चाहिए।
हर व्यक्ति को अपनी ही मान्यताओँ अपने ही आदर्शोँ, अपने ही विचारोँ और अपनी ही व्यक्तिगत पसंदगी से नापना कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीँ हो सकता
जनकवि कोदूराम "दलित" : १०७ वीं जयंती पर विशेष
" गो - वध बंद करो जल्दी अब, गो - वध बंद करो
भाई इस - स्वतंत्र - भारत में, गो - वध बंद करो ।
महा - पुरुष उस बाल कृष्ण का याद करो तुम गोचारण
नाम पड़ा गोपाल कृष्ण का याद करो तुम किस कारण ?
माखन- चोर उसे कहते हो याद करो तुम किस कारण
जग सिरमौर उसे कहते हो, याद करो तुम किस कारण ?
मान रहे हो देव - तुल्य उससे तो तनिक-- डरो ॥
समझाया ऋषि - दयानंद ने, गो - वध भारी पातक है
समझाया बापू ने गो - वध राम राज्य का घातक है ।
सब - जीवों को स्वतंत्रता से जीने - का पूरा - हक़ है
नर पिशाच अब उनकी निर्मम हत्या करते नाहक हैं।
सत्य अहिंसा का अब तो जन - जन में भाव - भरो ॥
आम बौराइल, गमके महुआ, कुहू - कुहू बोले कोयलिया
इस अवधि में शीशम के पेड़ हरे रंग की रेशम सी कोमल पत्तियों से ढँक जाते हैं। स्त्री पुरूष केसरिया वेशभूषा में प्रकृति के रंगों में घुल मिल जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो, वे भी प्रकृति के अंग हों। मधुुरता, कोमलता तथा मनुष्य के मन की व्यथा की सहज अभिव्यक्ति में चैता गीत अपना सानी नहीं रखते-
रसे रसे डोले पवनवा हो रामा, चैत महिनवा।
चैत अंजोरिया में आप नहाइले, तरई क चुनरी पहिरि मुसकाइले,
रहि रहि हुलसे परवना हो रामा, चैत महिनवा।
कुहू कुहू कोइलिया अंधेरे अंगिया डगरिया के टक टक हेरे,
भइल अधीर नयनवा हो रामा, चैत महिनवा।
फुनगी से झांके रे नन्हीं नन्हीं पतियां,
लहरि लहरि समझावेलि बतिया,
जाने के कौन करनवा हो रामा, चैत महिनवा।
होत बिहाने बहारे घना अंगना, धीरे से खनक उठइ कर कंगना,
लहरे ला रस का सपनवा हो रामा, चैत महिनवा।
अनहोनी
रात दिन के चक्र में,
संध्याएँ ही आनंदमय हैं
हम हरसमय और हर हमेशा,
संध्या में रहना चाहते हैं.
रेल की दो पटरियों को
हम मिलाना चाहते हैं
आज बस इतना ही...
अंत में देखिये...
धन्यवाद।
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंशुभ कामनाएं
अच्छी रचनाएँ
अच्छा वीडियो
वीडियो पहली बार प्रस्तुत किया आपने
बधाइयाँ
सादर
फिर से मैं ही
जवाब देंहटाएंकल की प्रस्तुति में
आदरणाीय भाई सुशील जी की प्रतिक्रिया पर
हमारे पड़ोस मे रहने वाली दीदी उत्तर प्रदेशीय हैं
सब किस्म की ठिठौली करती है
उन्हें ही सब दीदी और चाची कहते थे
परसो अचानक दो परिचित उनके घर आए
कहने लगे... भौजी तनि चाय तो पिलाओ न आज
बहुते दिन हो गए तोहरे हांथ से नही पिए हैं
सादर
ऐसा क्यूँ ?
हटाएंमेरी टिप्पणी कुछ ग़लत असर छोड़ गई ?
आदरणीय दीदी
हटाएंमैं अपनी प्रस्तुति में लिख दी थी कुछ यूँ
होलाष्टक लग गया है..
कोई शुभ कार्य नहीं
लोगों की जबान का ताला खुल गया है
कल तक दीदी कहने वाले
आज भाभी कहने लगे...
इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की थी भाई सुशील जी ने
आप कृपया कल की प्रतिक्रियाएँ पढ़ें
बुरा ना मानो होली है :)
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति कुलदीप जी । ये राजनीति किस बात की? और भूचाल कहाँ से आ गया ? होली में रंगों के बम फोड़ रहे हो तो अलग बात है :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंMere blog ki post ka link dene ke liye thanks
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