मैं और वो
तेज़-तर्रार,
नाज़-नखरेवाली,
साफ़-सुथरी,
सजी-धजी,
शताब्दी ट्रेन की तरह
सरपट दौड़ती.
न जाने कौन सी तकलीफ लेकर दौड़ता होगा -सतीश सक्सेना
कहीं छूटी हुई उंगली पिता की , ढूंढता होगा !
कहीं दिख जाएँ वीरानों में,बेटा खोजता होगा !
कोई सपने में आकर, नींद में लोरी सुना जाए !
हर इक ममतामयी चेहरे में,अम्मा ढूंढता होगा !
मन के पंछी कहीं दूर चल
तुम धरती आकाश हमारे...गीत बजने लगा है विविध भारती पर ....
है तो प्रार्थना ही पर मैं चली गई अतीत में ,मन भारी हो गया,सूरज की लाली दिखाई देने लगी है अब ..अरे!ये क्या सूरज से पहले तुम उग आए आसमान में!
-मैं जानता था,इस गीत के बजते ही तुम्हारे हृदय की सितार के तार झनझना उठेंगे और मैं चल पड़ा उन्हें सुनने ...ये क्या? तुम्हारी आँखों में नमी तो नहीं ,मन का बोझ महसूस हो गया था मुझे ...
फ़ेसबुक की जगह अब ताऊ की दिमाग बुक का जमाना आने वाला है।
वाह रे जकुर बर्गवा तूने भी क्या धोबीपाट मारा है कि आदमीफोन लिए लिए ही किसी की पोस्ट पर हंसता है और किसी कीपर रोता है, गुस्सा होता है और ये सच में अनुभव किया होगाआपने की ये एक्शन होता ही है.
शुभ प्रभात भाई विरम सिंंह जी
जवाब देंहटाएंसोच अच्छी तो
प्रस्तुति भी अच्छी
साधुवाद
सादर
सुंदर व रोचक संकलन !
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स. मेरी कविता शामिल की. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा संकलन....
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