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शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

463 ... कठपुतली






सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष



डुग्गी
दोरंगी
चिर-संगी
माया बानगी
लोक-कथा जंगी
कठपुतली अंगी
<><><>
चै
कश्ती
अबाती
कुर्रा-ए-गीती
पुत्तलिकाओं
हत्थे खुराफाती
अय्यार पटाक्षेप



मेरे अंतर की कालिमा की
परवाह किसी को ना होती
चाहे अंतर से मैं खोखला
या कोई पत्थर होता
मेरे चेहरे की रोनक पर
हर कोई दिल फेक होता




काश! वो जान पाता कि 
समय मिलता नहीं, 
निकालना पड़ता है.
काश! इन्तजार की बजाय 
उसने संतुलन के 
महत्व को समझा होता.






कभी करुण कभी रौद्र कभी श्रृंगार रस में नहाई हूँ
      कभी चढ़ती ख़ुशी की धूप कभी सुलगती गम की धूप 
      हर हाल में मुस्काई हूँ !
      जो किरदार दिया प्रभु ने उसे निभाने आई हूँ !




एक दूसरे से जुड़ने के लिये
कुछ धागे हैं 
आप मुखौटा हटाइये 
धागा टूट जाएगा 
ये कठपुतली का खेल है 
थोड़े वक़्त बाद 
खेल खत्म होता है




बेजान कठपुतलियां
फिर टंग जाती हैं
बरसों पुरानी खूंटी से
बार बार छली जाती हैं
मालूम होते हुए भी 
उनके प्राण किसी 





और जीने की उम्मीद  फिर से जगाती है....
 जब राह तकते हैं खुशियों की
वह आंसू की बारात लेकर आती है ...!!!!
ना जाने किस खुशफहमी में जीते रहते हैं ???
कहते रहते हैं .....
हम जो चाहे कर सकते हैं





वे, जिनके अंदर कोई कहानी नहीं पलती
कठपुतली बन जाते हैं!


फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए

आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव

चलते-चलते एक गीत तो बनता ही है






5 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय दीदी
    सादर नमन
    एक विषय की रचनाएँ
    प्रस्तुत करने में आप महारथ हैं
    अच्छी प्रस्तुति बनाई आपने
    साधुवाद
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ढ़ेरों आशीष अशेष शुभकामनाओं संग शुभ दिवस छोटी बहना 💐😍
      जो है बस अआपका साथ है बहना

      हटाएं
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति विभा जी । नया प्रयोग हलचल में बहुत सुन्दर है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. कठपुतलियों का नाच बहुत देखने को मिलता था बचपन में ..अब तो गायब हो गए जैसे नज़र ही नहीं आता ..
    फिर वे दिन याद कराती सुन्दर हलचल प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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