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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

454...vयही विमर्श है जो भारत को भारत वर्ष बनाएगा....


अपना ही आनंद है...
पर समय के साथ...
हम अपने पर्वों व त्योहारों को...
भूल रहे हैं...
ये बिलकुल सत्य हैं...
आज की प्रस्तुति का आरंभ...
इस रचना से...

दशहरा, स्मृतियों के कोने से।
सच कहूं तो बिना भाई-बहनों के कोई उत्सव, उत्सवमय लगता है क्या। जाने क्यों वही पुराने दिन याद आ रहे हैं। भइया के हाथों को पकड़े,नहर के किनारे वाली सड़क पर धीरे-धीरे चलना और भइया से कहानियां सुनते-सुनते घर तक पहुंच जाना..अम्मा का दरवाजा खोलना, उसे चहक कर नए खरीदे हुए खिलौने दिखाना,हफ्तों अपने खिलौनों पर इतराना....वो भी क्या दिन थे।

ज़लज़ला, मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी, मुखर होते मौन और सीप
मुंबई की कल्पना रामानी काफी सीनियर साहित्यकार हैं। चार दशकों से अधिक समय से रचनारत हैं, ग़ज़ल के अलावा, गीत, दोहे, कुंडलियां आदि लिखती रही हैं। अब तक दो नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं, हाल में इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी’ प्रकाशित हुआ है। आज के समय में ग़ज़ल की लोकप्रियता काव्य विधाओं में सर चढ़कर बोल रही है। भारत समेत आसपास के देशों में ग़ज़लें खूब लिखी-पढ़ी जा रही हैं, न सिर्फ़ हिन्दी-उर्दू में बल्कि तमाम विदेशी भाषाओं में भी। ऐसे माहौल में ग़ज़ल संग्रह का सामने आना बहुत आश्चर्यजनक तो नहीं है, लेकिन कथ्य और छंद के रूप में प्रयोग की जानी कलाकारी और अभिव्यक्ति चर्चा का विषय ज़रूर बनती है, और बनना भी चाहिए, क्योंकि ग़ज़ल की लोकप्रियता ने जहां हर किसी को इसके लेखन की तरफ अग्रसर किया है, वहीं इसके छंद की जटिलता ने लोगों को परेशान भी किया है, जिसकी वजह से तमाम
अधकचरी रचनाएं ग़ज़ल के नाम पर सामने आ रही हैं। मगर तल्लसी की बात यह है कि अब तमाम लोग इसके छंद को जानने-समझने के इच्छुक दिख रहे हैं। ऐसे माहौल में कल्पना रामानी की यह किताब एक तरह से लोगों के लिए आइना दिखाती हुई प्रतीत हो रही है। क्योंकि इन्होंने ग़ज़ल की परंपरा और मिज़ाज का समझने के बाद ग़ज़ल सृजन का काम शुरू किया है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लों में आमतौर पर छंद और बह्र की ग़लती नहीं दिखती। जहां तक इनकी ग़ज़ल के विषय वस्तु की बात है, इनकी ग़ज़लों को पढ़ने बाद स्वतः ही
स्पष्ट होने लगता है कि इन्होंने अपने जीवन और आसपास के परिदृश्य में जो भी देखा है, उसका वर्णन बड़ी ही इमानदारी और तत्परा के साथ किया है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लों में समाज, देश, धर्म, राजनीति, रिश्ते, पर्व आदि का वर्णन जगह-जगह मिलता है। एक ग़ज़ल का मतला इनकी रचनात्मकता और सोच को दर्शाता है -‘छीन सकता है भला, कोई किसी का क्या नसीब/आज तक वैसा हुआ, जैसा कि जिसका था नसीब।’ पानी का संकट और उसके व्यवसायीकरण ने मुश्किलें पैदी कर दी हैं, जबकि निश्चल होकर पानी का बहना
अपने आप में एक छंद का रूप धारण करता है, मगर स्थिति काफी बदल चुकी है। इस परिदृश्य का वर्णन करती हुई कल्पना रामानी कहती है- ‘कल तक कलकल गान सुनाता, बहता पानी/बोतल में हो बंद, छंद अब भूला पानी। जब संदेश दिया पाहुन का कांव-कांव ने/सूने घट की आंखों में, भर आया पानी।’

सर्जिकल स्ट्राइक पर ओछी राजनीति असहनीय
दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल, कांग्रेसी नेता पी. चिदंबरम तथा संजय निरुपम के बाद राहुल गांधी और कपिल सिब्‍बल ने जिस तरह सेना की सर्जिकल स्‍ट्राइक पर संदेह व्‍यक्‍त करते हुए अपनी बात कही, उससे साफ पता चलता है कि देश में कांग्रेस के नेतृत्‍व में विप‍क्षी राजनीतिक दलों की येन-केन-प्रकारेण राजनीति में
बने रहने की लिप्‍सा कितने खतरनाक स्‍तर तक जा पहुंची है! केजरीवाल सहित लगभग उन सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, जो सर्जिकल सट्राइक के साक्ष्‍य मांग रहे हैं, को भला ऐसे राष्‍ट्रविरोधी वक्‍तव्‍यों के बाद नैतिक आधार पर लोकतांत्रिक देश का जनप्रतिनिधि कैसे स्‍वीकार किया जा सकता है! क्‍या केंद्र सरकार तथा न्‍यायपालिका को संविधान की धाराओं को, इस परिस्थिति में राष्‍ट्रविरोधियों को दंडित करने के लिए, अत्‍यंत लचीला करने की आवश्‍यकता नहीं, जब कुछ राजनेता अपने राष्‍ट्र, इसकी सैन्‍य शक्ति तथा इसके केंद्रीय राजनैतिक नेतृत्‍व को लेकर एक प्रकार से दुश्‍मन देश पाकिस्‍तान के मिथ्‍या प्रचार का हिस्‍सा बनने को अति उत्‍सुक हैं।

यही विमर्श है जो भारत को भारत वर्ष बनाएगा....
 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई और वही काल था जब सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट विचारो नेभी भारत में करवट लेना शुरू किया था । पर वे आज हासिये पर हैं और RSS भारतीय राष्ट्र जीवन के केंद्र की और बढ़ता जा रहा है। इसकी ताकत को शाखाओं या स्वयंसेवकों की संख्या के आधार पर मापना गलत होगा। ऐसी संख्या तो किसी दुसरे संगठन के पास भी हो सकती है। संख्या की गुणात्मकता महत्व का होता है जो उस संख्या के प्रभाव और तीव्रता को की गुना बढा देता है। संघ से जूड़ने वाले व्यक्ति के सामने लक्ष्य के प्रति 'यांची देहि यांची डोला' (इसी शरीर और आंखो के सामने ) का भाव होता है और उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से संघ रूपी साधन से घुल मिलकर एक हो जाता है। साधन और साध्य की पवित्रता जिसकी बात महात्मा गाँधी भी किया करते थे ने संघ को एक नैतिक वैधानिकता के रूप में बड़ी पूँजी है। इसलिए विरोधो और प्रहारों के बावजूद संघ समाज में कभी अलग थलग नही हुआ। जब लोकशक्ति राज्य शक्ति के इतर राष्ट्रीय प्रश्नों को लेकर समस्या मूलक नही समाधानात्मक विमर्श करती है और उसके लिए समाज को ही साधन में परिवर्तित कर देती है तो उसकी आयु और ऊर्जा अपरिमित हो जाती है। तभी तो एक बेल्ट या निकर में परिवर्त्तन भी बड़ा समाचार
और लम्बा विमर्श का कारण बन जाता है।

रौशन जहाँ -कविता
इंसान भी , इसे छोड़ने के
डर से रोता हैं.
क्यों यह नहीँ सोचता ?
आगे रौशन  और भी “जहाँ ” हैं.

चरित्र का प्रतिबिम्ब
मैं आजकल बहुत संभल-संभल कर बोलता और लिखता हूँ, डर रहता है कि कहीं किसी को मेरी बात चुभ न जाए। वैसे भी कन्या राशि वालों की यही तो दुर्बलता है कि वे आलोचना बहुत करते हैं, वह भी चुभने वाली । लेकिन साथ ही मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि यदि आप हम लोगों की आलोचना को व्यक्तिगत रूप से न लेकर सर्जनात्मक और रचनात्मक रूप से लें तो आप पाएँगे कि वे सभी टिप्पणियाँ वस्तुतः सत्य हैं और आपके हित ही में हैं । चापलूसी तो हम लोग करते नहीं, किंतु प्रेम और मैत्री उनके वास्तविक स्वरूप में ही करते हैं । एक रहस्य की बात कहूँ तो यदि आप कभी हमारी व्यक्तिगत डायरी पढें तो पाएँगे कि जितनी आलोचना हम दूसरों के विचारों और व्यवहार की करते हैं, उससे कई गुना अधिक अपनी स्वयं की करते हैं । यदि आप बाहर के इस आग के दायरे को पार कर सके, तो पाएँगे कि वास्तव में हम अत्यधिक नम्र और कोमल हृदय हैं ।

हत्यारे की जाति का डी एन ए निकाल कर लाने का एक चम्मच कटोरा आज तक कोई वैज्ञानिक क्यों नहीं ले कर आया
शहर के एक
नाले में मिला
एक कंकाल
बेकार हो गया
एक छोटी
सी ही बस
खबर बन पाया

रावण कभी नहीं मरता
अहंकार को मनुष्य के उत्थान की सबसे बड़ी बाधा माना गया है.संतजन कहते हैं कि ज्यों-ज्यों अहंकार मिटता है,व्यक्ति का चित्त निर्मल होने लगता है.व्यक्ति ईश्वर के निकट पहुँचता है.दूसरों से अधिक श्रेष्ठ,शक्तिमान अधिक सम्माननीय बनने की लालसा सबके मन में होती है.रावण ने भी स्वयं को सर्व शक्तिमान समझ लिया था. जो उसके अंत का कारण बना.
मानवीय विकार मनुष्यों की स्वभावगत प्रवृति है लेकिन शुभ संस्कारों के कारण हम इनसे जूझते भी रहते हैं.आदि काल से सद् और असद् प्रवृत्तियों के बीच द्वंद चलता रहता है.रावण इन्ही असद् और आसुरी प्रवित्तियों का प्रतीक है.

आज के लिये इतना ही...
धन्यवाद।













7 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    नमस्कार
    रावण को तो जला दिया पर जलाना तब सार्थक होगा जब हम अपने अन्दर के रावण को जला देगे ।

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात...
    उत्तम सामयिक चर्चा होतु रचनाएँ
    आज का रावण अभी भी जीवित है
    जो कुकर्म करता चला आ रहा है
    और विभीषण भी जीवित है
    साथ में मीर जा़फ़र भी है
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. आज के हलचल में बहुत सुंदर लिंक्स.मुझे भी शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर प्रस्तुति । आभार 'उलूक' का कुलदीप जी सूत्र 'हत्यारे की जाति का डी एन ए'को स्थान देने के लिये ।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  6. आज की प्रस्तुति में मेरा लेख शामिल करने के लिए अनेक धन्यवाद ।

    http://yashaskar.blogspot.in/search/label/Hindi


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