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बुधवार, 21 सितंबर 2016

432...दुकान के अंदर एक और दुकान को खोला जाये

सादर अभिवादन
आज का काम मेरे जिम्मे

कुछ उथल-पुथल तो हो रही है
कोई नई बात नहीं..
उथल-पुथल का होना..
मैं समझता हूँ कि ये
उथल-पुथल का सिलसिला..
सन् उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद
प्रारम्भ हुआ..और पड़ोसी के 
जीवित रहते तक अविराम होते रहेगा
...
चलते हैॆ आज की रचनाओं की ओर....

पहली बार....


ऐ दिल है मुश्किल......पारूल कनानी
अपनी ख़ामोशी से
आकर,मेरी ख़ामोशी सिल
कहते नहीं बनता अब
ऐ दिल है मुश्किल !!



पाकिस्तान की रगों में भारत-घृणा का खून है। वह एक बैचेन देश है, जिसने अपने सपने तो पूरे किए नहीं और न खुद की एकता कायम रख सका। अपने लोगों पर दमन-अत्याचार की कहानी उसने बंटवारे के बाद फिर दोहराई जिसका परिणाम बंगलादेश के रूप में सामने आया। आज भी वह बलूचिस्तान, गिलगित और पीओके में यही कर रहा है। जम्मू और कश्मीर में भी उसे शांति सहन नहीं होती। भारत में रहकर प्रगति कर रहे इलाके उसे रास नहीं आते। यहां हो रही चौतरफा समृद्धि से उसे डाह होती है। बाकी देशों की तुलना में पाकिस्तान की जलन और कुढ़न ज्यादा है, क्योंकि वह भारत से अलग होकर बना देश है। भारत विरोध उसके डीएनए में है।


हाईकू..किन्नर...डॉ. प्रतिभा स्वाति
वो जब आएं
दामन में दुआएं
देकर जाए
..
गोद में लाल
वो चूम गए भाल
सब निहाल
...
विधि ने रचा
सारा संसार घर
जियो किन्नर




तृषा जावै न बुंद से
प्रेम नदी के तीरा
पियसागर माहिं मैं पियासि
बिथा मेरी माने न नीरा

मैं धृतराष्ट्र 
देखता रहा , सुनता रहा 
और द्रोपदी के चीरहरण में 
सभ्यता , संस्कृति
तार तार हुयी 
धर्म के सारे अध्याय बंद हुए ,

दुनिया की अंधी दौड़ की होड़ में तुमको न झोकेंगे 
तू सोच समझकर मन से करना हम करने से न रोकेंगे 
दुनिया की नज़रों में उठकर क्या जीवन भर पछताना 
बस बेटा तू अपनी नज़रों में साबित हो जाना 
मेरे लिए मायने रखता है तेरा एक दिन अन्वित हो जाना 


अति मीठे को कीड़ा खा जाता है।
अति स्नेह मति बिगाड़ देता है।।

अति परिचय से अवज्ञा होने लगती है।
बहुत तेज हवा से आग भड़क उठती है।।


सुलेख........ गोपेश जैसवाल 
‘गीतिका, तुम तो बहुत प्यारी बच्ची हो, इतना अच्छा बोलती हो. पर तुमने ये गन्दी बात क्यों की?
तुमको अपने पापा के सिग्नेचर करने की क्या ज़रुरत थी?’
परिमू साहब का सवाल और उनका गुस्सा बेचारी गीतिका के तो पल्ले पड़ा नहीं
 पर मैं सब कुछ समझ गया. मैंने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘परिमू साहब, ये सिग्नेचर मेरे ही हैं.’.                        
अब परिमू जी का चेहरा देखने लायक था.

आज का शीर्षक....
मालिक की दुकान 
के अंदर खोल
कर एक अपनी दुकान
दुकान के मालिक का
माल मुफ्त में एक
के साथ एक बेचा जाये
मालिक से की जाये
मुस्कुरा कर मुफ्त
के बिके माल की बात
साथ में बिके हुऐ
दुकान के माल
से अपनी और
ठोके पीटे साथियों
की पीछे की जेब
को गुनगुने नोटों
की गर्मी से थोड़ा
थोड़ा रोज का रोज
गुनगुना सेका जाये ।

आज्ञा दें दिग्विजय को..
फिर आएँगे...




9 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात
    रचनाएं तो बेहतरीन है
    पर आज ज्यादती कर दी आपने
    इतनी रचनाए लोग
    एक बैठक में
    शायद ही पढ़ पाएँ
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. दीप्ति शर्मा की कविता -'हे पार्थ' के अंधे धृतराष्ट्र देख कैसे पाते हैं?

    जवाब देंहटाएं
  3. yashoda ji meri rachna ko shamil karne ke liye bahut bahut aabhar..baaki rachnanon ka sankalan bhi rochak hai..avshay hi padhungi ..thankyu once again :)

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर हलचल । फिर से ले आये दिग्विजय जी 'उलूक' के बड़बड़ाने के हिसाब से कुछ। बुदबुदाहट समझ में भी खुद के नहीं आती है उसके अपने। आभार ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. भैय्या जी
      सादर नमन
      ये सब समझने के लिए ही
      आप को बार-बार यहां बुलाते हैं वे
      सादर

      हटाएं
  5. बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  6. मेरी रचना 'सुलेख' को अपने ब्लॉग में स्थान देने के लिए धन्यवाद दिग्विजय जी.

    जवाब देंहटाएं

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