आज कल सारे देश में...
पूर्वजों की श्रद्धा के पावन दिन चल रहे हैं...
कितना महान है ये देश...
हां मरने के बाद भी इतना आदर मिलता है...
हे कोई कुछ भी कहे...
अतीत की दी हुई नीव पर ही ...
वर्तमान टिका होता है...
हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार अश्विन माह के कृष्ण पक्ष से अमावस्या तक अपने पितरों के श्राद्ध की परंपरा है। यानी कि 12 महीनों के मध्य में छठे माह भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से (यानी आखिरी दिन से) 7वें माह अश्विन के प्रथम पांच दिनों में यह पितृ पक्ष का महापर्व मनाया जाता है। सूर्य भी अपनी प्रथम राशि मेष से भ्रमण करता हुआ जब छठी राशि कन्या में एक माह के लिए भ्रमण करता है तब ही यह सोलह दिन का पितृ पक्ष मनाया जाता है। उपरोक्त ज्योतिषीय पारंपरिक गणना का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि शास्त्रों में भी कहा गया है कि आपको सीधे खड़े होने के लिए रीढ़ की हड्डी यानी बैकबोन का मजूबत होना बहुत आवश्यक है, जो शरीर के लगभग मध्य भाग में स्थित है और जिसके चलते ही हमारे शरीर को एक पहचान मिलती है। उसी तरह हम सभी जन उन पूर्वजों के अंश हैं अर्थात हमारी जो पहचान है यानी हमारी रीढ़ की हड्डी मजबूत बनी रहे उसके लिए हर वर्ष के मध्य में अपने पूर्वजों को अवश्य याद करें और हमें सामाजिक और पारिवारिक पहचान देने के लिए श्राद्ध कर्म के रूप में अपना धन्यवाद अर्थात अपनी श्रद्धाजंलि दें।
प्यार
हिम शीतल बर्फ की चादर को हम लहू से अपने गर्म किये
तुम सदा ख़ुशी निर्भीक रहो ये सोच प्राण उत्सर्ग किये
हमको रखकर अपने दिल में अब ऐसे लाल जन्मना तुम
दुश्मन का हृदय चीर लाये ए माता तेरे प्यार में ॥
पाकिस्तान मिट जायगा
कायर हो तुम अधम, सोते में उनकी जान ली
निर्जीव शव को मार कर, बहादुरी क्या कर ली ?
परिणाम नहीं जानते तुम, नतीजे से हो अनजान
कश्मीर होगा अब से देखो, भारत देश की शान
पाकिस्तान का मिट जायगा, सभी नामो निशान |
गर हिम्मत हो तुम में तो. मैदाने जंग में आओ
बीरता से मैदाने जंग में अपनी बहादुरी दिखाओ |
छोटा सा चाँद
किरणों की मेखला
बादलों में हो बिजलियां
आओ सपनों से शब्द बुने
भावों से रंग चुने
कहाँ हो सजनिया
पलकों के मुहाने पे समुन्दर न देख ले ...
ऐसे न खरीदेगा वो सामान जब तलक
दो चार जगह घूम के अंतर न देख ले
मुश्किल से गया है वो सभी मोह छोड़ कर
कुछ देर रहो मौन पलटकर न देख ले
नक्शा जो बने प्याज को रखना दिमाग में
दीवार कभी तोड़ के अन्दर न देख ले
यह बदलाव नहीं तो और क्या है ~१
ग़ौर से देखा जाए तो आजकल का बचपन है क्या, सुबह उठे स्कूल चले गए। वहाँ से आए नहा धोकर खाया पिया बहुत हुआ तो ग्रहकार्य किया और भिड़ गए टीवी देखने या लेपटॉप पर खेलने, कुछ नहीं मिला तो मोबाइल पर ही शुरू हो गए और जब उससे भी मन भर गया तब याद आती है इस दुनिया में उनके कुछ दोस्त भी हैं। पर फ़ायदा क्या उनका भी हाल वैसा ही है जैसा मैंने उपरोक्त पंक्तियों में व्यक्त करने का प्रयास किया है। आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब गणपति महोत्सव की इतनी धूमधाम और आस -पास हो रही हलचल के बावजूद बच्चों में कोई ख़ास उत्साह या लगाव दिखाई नही दिया। ना बच्चों की आँखों में त्यौहार के प्रति वो चमक ही दिखाई दी जो हम अपने समय में महसूस किया करते थे।
आज बस इतना ही...
आज आप को प्रतीक्षा मेरी नहीं थी...
पर अब प्रत्येक गुरुवार को मैं ही आऊंगा...
कभी-कभार बदलाव करना पड़ता है...
चलते-चलते...
जब मतलबी ये दुनिया रिश्तों से क्या है मतलब
इन मतलबों से हटकर इन्सान ढूँढता हूँ
एहसास उनका सच्चा गिरकर जो सम्भलते जो
अनुभूति ऐसी अपनी पहचान ढूँढता हूँ
धन्यवाद।
शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंऐसे न खरीदेगा वो सामान जब तलक
दो चार जगह घूम के अंतर न देख ले
शानदार रचनाएँ
सादर
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति
अच्छी और सार्थक लिंको का चयन
बढ़िया प्रस्तुति कुलदीप जी ।
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