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शनिवार, 3 सितंबर 2016

414 ..... कविता



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

भाव कविता की आत्मा है
शब्द शरीर
विधाएँ सौंदर्य प्रसाधन !
©किरण सिंह
♂♀
भाव और शब्द बिना तो कविता क्या अभिव्यक्ति ही नहीं हो सकती है



सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी
जो सदैव संघर्षरत रहेंगे l
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे
न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे




यह तमाम सहमतियों-असहमतियों से बुना
इसी धरती का मानवीय संबंध है। प्रेम में पुरुष के लिए स्त्री दर्पण की तरह है
जहाँ वह अपने को पाना चाहता है, उसे पाना चाहता है
जिसे उसने सदियों से वहाँ छोड़ रखा है। ।


कविता


सहज स्वभाविक जीवन को धकेल कर अपने पैर पसारता
आधुनिक जीवन कविता की चिंता का एक जरूरी विषय रहा है ।
सामाजिकता के ताने बाने को तार तार करती हुई जो नई समाज व्यवस्था बनी है
उसमें सहजता की जगह कृत्रिमता ने हड़प ली है ।



प्रकृति से सानिध्य


कभी कल कल करती सरिता,
या कभी गगन चुम्बी इमारतों से ये पेड़
कभी सीली ठंडी हवा
तो कभी हरियाली चरती हुई भेड।


कॉफी हाउस



ऐब ये है इन के हाथों में कुंद ज़बाँ की है तलवार
‘आली’ अफ़सर ‘इंशा’ बाबू ‘नासिर’ ‘मीर’ के बर-ख़ुरदार
‘फ़ैज़’ ने जो अब तक लिक्खा है क्या लिक्खा है सब बे-कार
उन को अदब की सेह्हत का ग़म मुझ को उन की सेह्हत का
ये बेचारे दुख के मारे जीने से हैं क्यूँ बे-ज़ार*



दीदार की हसरत



हसीन चेहरे को कहाँ सजने की फुरसत है
इस दिल को उन के दीदार की हसरत है
मासूम सी वो सादगी ही है उनकी पहचान
देखो बहारों मे छुपी वो सच मे कुदरत है


फिर मिलेंगे ...... तब तक के लिए


आखरी सलाम



विभा रानी श्रीवास्तव




4 टिप्‍पणियां:

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